SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१२ पुरुषार्थसिख धान हैं, अतएव उनका त्याग करने पर हो [शुद्धधियः जिनधर्मदेशमाया; पाश्राणि भवसि ] निर्मल चित्त होते हुए ( अशुद्धता त्यागते हुए ) भव्यजीव जिनवाणी या जिनधर्मका उपदेश सुनने के अधिकारी ( पात्र-योग्यतासम्पन्न होते हैं, अन्यथा नहीं, यह नियम है ।१७४।। भावार्थ--'जबतक हृदयकी कलुषता ( अशुद्धता या विकारपरिणति----पापको वासना ) नहीं निकल जाती अर्थात हृदय ( उपयोग ) शुद्ध नहीं हो जाता तबतक न धर्मका उपदेश सुना जा सकता है न सुनने की रुचि ही उत्पन्न हो सकती है. गोंकि योगकी क्रिया संयोगी पर्याय में बहुधा कषायके अनुसार हुआ करतो है अर्थात् जैसा कषायका उदय हो वैसे ही भाव व बाह्य कियाका प्रवत्तेन भी होते हैं सदनुसार यदि मनमें खोटा विचार हो ( दुबुद्धि हो ) तो हमेशा उसकी ही ओर उपयोग जायगा, कभी अच्छा उपयोग न होगा-...-आत्मकल्याणको भावना न होगी। न धर्मका उपदेश सुनेगा, न धर्मका कार्य करेगा न उसकी धारणा होगी । हृदयपर असर न होगा) कारण कि साफ बस्त्रपर ही रंग चढ़ता है और बहुत समय तक स्थायी रहता है, यह नियम है। ऐसी स्थिति में पहिले हृदय स्वच्छ (निर्मल ) होना चाहिये अर्थात् मिथ्यात्व पाएँ छूटना चाहिये, यह सारांश है । धर्म धारण करने के लिये अधर्म या पाप करना बंद कर देना चाहिये ----वह अनिवार्य है अस्तु। उत्सर्ग व अपवावका स्पष्टीकरण व समन्वय जैन शासनमें अनेक पारिभाषिक या सांकेतिक शब्द ऐसे हैं जो अपनी खास विशेषता रखते हैं वे अन्यत्र नहीं पाये जाये जाते हैं, तथा उनकी संगति भी सभीके साथ नहीं बैठती-तब विना समझे लोग भूल भटक जाते हैं अर्थका अनर्थ कर बैठते हैं, विवाद या विसंगति हो जाती है । यद्यपि विबादको दर करने या मिटानेके लिये स्यादाद या अनेकान्त' न्याय बतलाया गया है तथापि जब तक उसका रहस्य हृदयंगम न हो ( अनुभवमें न आवे ) व अपेक्षा न बतलाई जावे ( मुह मिल रहे), तबतक संतोषजनक समाधान नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में कुछ संकेतोका परस्पर समन्वय करना उचिस जान पड़ता है अस्तु । जैनागममें सर्वोत्कृष्ट 'मोक्ष' पदार्थ को प्राप्त करने के दो मार्ग उपाय) बतलाये गये हैं (१) निश्चयमार्ग, (२) व्यवहारमार्ग। इन्हीं के स्थान ( एवज ) में (१) उत्सर्गमार्ग (२) अपबादमार्ग। अथवा (१) वीतरागमार्ग (२) सरागमार्ग । अथवा (१) निवृत्तिमार्ग, (२) प्रवृत्तिमार्ग, ऐसे पर्याय बाची नाम ( वाचक ) बतलाए गये हैं, परन्तु उन सबका बाचार ( अर्थ ) एक हो है, उसमें भेद नहीं है अर्थात् बाब्दभेद है परन्तु अर्थ भेद नहीं है इत्यादि । तदनुमार यहाँ पर धर्मके प्रकरणमें दो भेद किये गये हैं (१) सकलधर्म या सकलखत, अर्थात् (१) उत्सर्गधर्म । पूर्ण अहिंसाधर्म या पूर्ण निवृत्तिरूप वीतरागधर्म और १२) अपवादधर्म ( अपूर्ण अहिंसाधर्म या कुछ निवृत्तिरूप व कुछ प्रवृत्तिरूप सरामधर्म ) मुख्यतया उत्सर्गधर्मधारी मुनि ( अनगार ) होते हैं और मुख्यतया अपवादधर्मधारी श्रावक ( सागार होते हैं यह समन्वय है । फलतः निश्चयमोक्षमार्ग वीतरागतारूप या निवृत्तिरूप है तथा व्यवहारमोक्षमार्ग सरागतारूप ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy