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________________ धर्मप्रालिकी भूमिका नोट-जो जीव अधिक रागद्वेष ( तीन अषाय) वश अपने विषयकषाय पोषणके लिये पेशतरसे हो संञ्चित चीजें सुखाकर उपयोगमें ( खाने में लाते हैं उनके भावहिंसा बराबर होती है याने बिना उनके खाये भी परिणामोंमें राग शुरू जबसे होता है तभीसे भावप्राणों ( ज्ञानादि गुणों ) का घात होने लगता है। बार.२ उस तरफ उपयोग जाता है, चिन्ता व बिकल्प होते है। अत: वह है तो अपराध, परन्तु न न पदार्थाका बारे में और शायागुठा समय वैसा अरुचिपूर्वक किया जाय तो वह जायज ब कम अपराध है, जो गृहस्थों ( श्रावकों) से बच नहीं सकता ( असंभव है। ऐसी स्थिति में जो पदार्थ अभक्ष्य हैं उनमें यह न्याय लागू नहीं हो सकता कारण कि उनका खाना तो शौकब अल्यासक्ति है-तीन के.पाय है, जिससे महाबंध होता है, अधिक सजा मिलली है 1 शाकमाजी सचित पदार्थों को सुखा करके या चुरो करके ( अग्नि पर पका करके ) खाने वाले जीव, सचित्तत्यागी, इन्द्रियसंयमी हैं, असंयमो नहीं है वे ऐसा कर सकते हैं.... उनका तीध राग नहीं है मन्द है, क्योंकि वे भक्ष्यपदार्थ हैं। किन्तु जो पदार्थ सर्वथा अभक्ष्य हैं किन्तु लीन राग होने के कारण सुखाकर पकाकर उन्हें भक्ष्य या अचित्त करना या बनाना चाहते हैं वे ऐसी खटपटी क्यों करते हैं जो अनर्थरूप है । बे पदार्थ कभी भक्ष्य या शुद्ध हो ही नहीं सकते अतः उनके लिये प्रयास करना व्यर्थ है—निषिद्ध है, अस्तु ।। ७३ ।। आचार्य शिथिलताको दूरकर याबकोंको मूलगुणोंके पालनेमें सतर्क या सावधान करते हैं कि विना अष्टमूलगुण पाले तुम धर्म उपदेशके पात्र नहीं हो सकते। नोट-(पेश्तर प्रारंभमें श्लोक नं० ८ में निश्चय व्यवहारको समझने पर ही देशनाकी पायता बतलाई थी यह दुबारा है। आचार्य इस प्रकार समय-समय पर सम्यग्दर्शनादिके विषयमें सावधान करते जाते हैं ऐसा समझना । अष्टावनिष्टदुस्तरदुरितायतनान्यमूनि परिवयं । जिनधर्मदेशनायाः भवन्ति पात्राणि शुद्धधियः ।।७४।। मद्यादि आठों वस्तुएँ अभिम तथा दुर्लभ्य हैं। अरु पापकारक जानकर सजना उन्हें कर्तव्य है ॥ जिसका हृदय नहिं शुरु हो वह जैन बन सकप्ता नहीं। अरु देशलाका पात्र भो किस भोति हो सकता केही ॥४॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ अमूनि अष्टौ अनिष्टदुस्तरदुरितायतनानि परिवर्थ ] पूर्वमें कही मद्यादि आठ वस्तुएँ अप्रिय अहितकारक दुर्लभ और महान् पापोंका ( हिंसाका ) घर १. पापोंका पर। २. प्रश्न सूचकनहीं हो सकता।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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