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________________ २०६ पुरुषार्थसिद्धा ३. आगे मधु ( शहद ) के सेवन में हिंसाका होना बतलाते हैं। मधुशलमपि प्रायो मधुकर हिंसात्मको भवति लोके । भजति मधु मृदधीको यः स भवति हिंसकोऽत्यन्तम् ॥ ६९ ॥ पद्म मधुका एक बिन्दु मो बनता मधुमक्खीकी हिंसासे । अतः उसे जो सेवन करते मूढ़ न वचते हिंसासे || अरु मक्खीका उगलॅन है । घोर अरुचि कूeraरें है । ६९ ॥ हिंसा-मूल मधू भी होला, ऐसा अशुच पदार्थ नहिं अन्वय अर्थ- आचार्य कहते हैं कि [ लोके प्रायः मधुशलमपि मधुकर हिंसात्मको भवति ] प्रायः लोक या देखने में ऐसा आता है कि मधुकी एक बूंद भी भघुमक्खियोंकी हिंसा ( घात से हो तैयार होती है अतएव [ यः सूधीक: मधु भजति ] जो मूढबुद्धि ( अज्ञानी ) जीव मधुका सेवन करता है ( मधु खाता है ) [ अध्यम् हिंसको भवति ] वह महान हिंसक या हिंसाका करनेवाला होता है ||६|| १. विन्दु । २. मधुमक्खी । भावार्थ- मधुकी उत्पत्ति मधुमक्खियोंके अडोसे या उनके उगाल ( जूठन ) से होती है । कारण कि जब मधुमक्खियों उड़ उड़ करके तमाम फूलों (पुष्पों ) और रसोले पदार्थोंपर जाती है. तब वहाँ उनका रस मुँह में भरकर लाती हैं तथा अपने छत्ते में उड़ेलती है वहाँपर वह रस एकत्रित होता है, जिसमें असंख्याते जीव अंडों द्वारा या वैसे ही सम्मूर्च्छन उत्पन्न होते रहते हैं। ऐसी स्थिति में जो उस मधुको खाते हैं वे उन जीवोंका घात होनेसे हिंसक व महापारी बन जाते हैं । raya जब उसके बिना खाये भो जीवन निर्वाह हो सकता है तब उक्त प्रकारके अशुचि ( कूड़ाघर समान और घृणाकारक पदार्थको नहीं खाया जाय तो बेहतर हो ! वह खाना एक प्रकारका शोक है-विवेकशून्यता है । विषय कबायका पोषण करना है जो महान अपराध है, पापबंधका कारण है, घोर दुःखोंका बीज है, लोकमें निन्दाकारक है - सदाचारला में कलंक या बट्टा है। इसके सिवाय वह परिणामोंमें क्रूरता ( तामसभाव .) लाने वाला है बड़े-बड़े अनर्थ करानेवाला है इत्यादिअतः उसे छोड़ देता हो हितकर है उसका त्यागनेवाला ही अहिंसक या धर्मात्मा बन सकता है किम्बहुना ३. उगाल- जूठन ४. कूड़ाघर या पिठ | h
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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