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________________ धर्मप्रासिकी भूमिका मधुके विषयमें सर्क और उसका समाधान किया जाता है। स्वयमेव विगलितं यो गृहीयाद्वा छलेन मधुगोलात् । तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रितप्राणिनां घातात् ॥७०।। पद्य गहुमखीरे गये तो दासी खाते हैं। भया सलसे भाग जलाकर मक्खी मार भगाते हैं। दोनों में हिंसा होती है स्वयं गिरे या मिरवाये । उसके आश्रित बहनेघाले जीव मरें जो खानाये ॥७०।। अन्वय अर्थ-आचार्य उस तकंचालेको समझाते हैं कि भाई [ यः स्वयमेश विगलितं मधु गृहीयात ] जो प्राणो मधुमक्खीके छत्तासे स्वयं टपकी हुई बँदको भी ग्रहण करेगा [ वा छलेन मधुगोलात् विगलितं गृहीयात् ] अथवा छल कपटसे छत्ताको गिराकर या जलाकर प्राप्त हुई मधुको ग्रहण करेगा ( स्वायमा) [सत्रापि तदाश्रितप्राणिनां धासात हिंसा भवति ] उस दशामें भी, उस मधुमें या छत्ते में रहनेवाले जीवोंकी हिंसा अवश्य होगो व उसे हिंसाका पाप लगेगा हो । अतएव तर्कवालेका यह तर्क ठीक नहीं है कि स्वयं टपके हुए मधुके खाने में हिंसा नहीं हो सकती इत्यादि ||७०|| भावार्थ-जो पदार्थ, जीवोंको उत्पत्तिका आयतन ( आधार निमित्त या योनि ) हो, वह पदार्थ कभी जीवोंसे रहित ( खाली ) नहीं हो सकता; किन्तु उसमें सदैव असंख्याते जीव उत्पन्न होते व मरते रहते हैं। ऐसी स्थिति में मइ-मांस-मधु, ये तीनों पदार्थ, अनंते जीवोंका घर हैं ऐसा समझना चाहिये अतएव जो इनको खाता है, स्पर्श करता है या अन्य उपयोगमें लाता है उसके हिंसा अवश्य होती है अर्थात् वह हिंसक बराबर होता है, चाहे वे पदार्थ स्वयं उपजे या उपजाये जावें, उनके स्तेमाल करनेसे हिसा बच नहीं सकती यह नियम है। तब व्यर्थ ही तर्क या विकल्प उठाकर अनर्थका पोषण करना उचित नहीं कहा जा सकता, वह लोकनिध और महान् अपराधी सिद्ध होता है। उपचकूलो सदाचारी विवेकी जीव, कभी नीच कर्म नहीं करते । वे सदा अपनी कुलमर्यादाका ख्याल रखते हैं चाहे उनपर कितनी भी आपत्तियाँ आजावें । लोकमें प्रतिष्ठाका कारण उच्च आचार विचार ही होता है, उससे जीवको बड़ो प्रसन्नता व खुशी होती है तथा शुभास्रव भी होता है, पुण्यका बंध होता है और उसके उदयसे सांसारिक विभूति व सुख प्राप्त होता है। अतः अच्छे कार्य करना चाहिये । चावकि ( नास्तिक का सिद्धान्त ठीक नहीं माना गया है वह हेय और निन्दनीय है। उसका सिद्धान्त 'खाना पीना मौज उड़ाना है उसके माननेवाले, धर्मपर विश्वास नहीं करते। वे परलोकको भो' नहीं मानते अतएव निर्भय और स्वच्छन्द हो सब कुछ खाते १. भूखे रहनेपर भी देखो नहीं सिंह तृण खाता है । विपतिकालमें भी कुलीनजन मीच कर्म नहि करता है। नीतिवाक्य ।।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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