SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पीते हैं। उनका यह मत है कि खानेके लिये जीना है--विषयादि सेवन करना ही जीवनका उद्देश्य है, जो गलत । किन्तु विवेक बुद्धिमानोंका सिद्धान्त 'जीनेके लिये खाना' ठोक है गलत नहीं 113011 आगे ती त्यागी ( अहिंसापालक पुरुष मद्याविको घिनावने व हानिकारक अभक्ष्य मानकर उनका त्याग करते हैं, यह बताया जाता है। मधु मयं नवनीतं पिशितं च महाविकृतयस्ताः । वल्भ्यन्ते न व्रतिनौ तद्वर्णा जन्तवस्तत्र ॥ ७१ ॥ पद्य मधमा अरु मधु नैनू ये चार पदारथ ऐसे हैं । जिनमें जीव हमेशा रहते अतः यती नहिं खाते हैं हैं वे बुरे दिखत हैं, और अनेक रोग करते । दोनों लोक विमार करत हैं, अरु हिंसा कारक होते !! २१ || अन्वय अर्थ --- आचार्य कहते हैं कि [ मधु मथं नवनीतं पिशितं च महाविकृतयः ] मधु-मदिरानैनू-मांस ये चार चीजें महान विकार ( रोगादि ) और घृणा कारक है। अतएव [ ता: हसिना न बभ्यन्ते ] उन अशुच और रोगोत्पादक विरूंप चारों चीजोंको व्रतीपुरूष अर्थात् विवेकी अष्टमूलगुणधारी जीव नहीं खाते ( सत्पुरुष कुलीन मनुष्य उनका रोवन नहीं करते ) कारण कि [ च वर्णा जन्तवः सन्ति ] उन उक्त चार चीजोंमें उसी जाति ( गोत्र ) के बहुतसे सम्मूच्छेन जीव रहा करते हैं, सो उनके खानेसे उन सबका घात होता है-हिंसा पाप लगता है, प्रतिज्ञा भंग होती है ॥ ७१ ॥ भावार्थ- व्रतधारण करना और उसकी रक्षा करना बड़ा कठिन कार्य है, बड़ा विचार और आचार ( संयम ) करना पड़ता है तब कहीं व्रत पलता है । और उसके लिये भूमिका ( पात्रता ) बनानी पड़ती है | वह भूमिका उक्त मद्यादि चार चीजोंके त्याग करनेसे तैयार होती है, इतना ही नहीं, साथ में और भी त्याग करना पड़ता है जो आगे सब बताया जानेवाला है किन्तु सबका मूल यही है, इसलिये इनपर अधिक जोर दिया गया है। रसनेन्द्रियके वशीभूत होकर जीव अन्धे जैसे Prasain हो जाते हैं भक्ष्य अभक्ष्य कुछ नहीं देखते । अतएव रसना इन्द्रीको वश करनेके लिये अर्थात् उसपर अंकुश लगानेके लिये ( इन्द्रिय संयम पालनेके लिये ) उपर्युक्त चीजोंका त्याग करना afear है। शौकसे या रागादिककी प्रबलतासे जीव भ्रष्टाचारकी ओर तेजीसे बढ़ते जा रहे हैं-धर्माचारी और विलोंका ध्यान जाता है अतएव आचार्यप्रवरने श्रावकों (सद्गृहस्थों ) को १. नैनू या मक्खन । २. विवेकीजन-सत्पुरुष । ३. बुरे दिखनेवाले कारक ? *** 您
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy