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________________ সমধিকী সুমিষ্টা २०१ समझानेके लिये पूज्य श्रीसमन्तभद्राचार्यको कृति 'नकरड श्रावकाचार' को सरह इस पुरुषार्थीसद्धि अन्य ( कृति ) के द्वारा श्रावकों को पर्याप्त सावधान किया है.--धर्ममें लगाया है, अधर्म छुड़ाया है, ऐसा महान उपकार किया है, जो निरपेक्ष होनेसे शुभोपयोगका कार्य उचित ही है । उन्होंने शुद्धोपयोगकी रक्षाके लिये यह प्रयास किया है, जो परोपकारमें शामिल है शुभोपयोगी साधु ( मुनि ) आचार्य अपने पदके अनुसार भक्तिवात्सल्प आदि कार्य कर सकते हैं ऐसी आगमकी आशा है, परन्तु उन सबका लक्ष्य शुद्धोपयोगकी प्राप्ति होना अवश्य चाहिये किम्बहुना। शुद्धोपयोगको रक्षा अर्थात् अशुद्ध निश्चयमयसे शुद्धोपयोग अथवा नामान्तरसे शुभोपयोगमें उपयोग लगाने ( रमाने) के लिये और अशुभ उपयोगसे चित्त ( उपयोग ) को हटानेके लिये ऐसा उपयोगी कार्य ( ग्रन्थरचना आदि ) किया है, जो बीचका आलम्छन है लेकिन उसको भी लक्ष्य में हेय मानते रहे हैं (बंधका कारण होनेसे उससे भी अरुचि करते रहे होंगे अतः पुण्यवेध भी हेय है । इस प्रकार प्रती विवेकी अपना कर्तव्य साधक अवस्था पालते हैं यह विशेषता है लक्ष्य सबका हिंसासे बचकर अहिंसा व्रतको पालनेका ही रहता है ।।७१|| अस जीवोंको योनिरूप पाँच उवम्बर फलोंके खानेसे भी हिंसा होती है अतएव वे भी अभक्ष्य हैं, यह बतलाया जाता है। योनिरुदम्बरयुग्मं प्लक्षन्यग्रोधपिप्पलफलानि । सजीवानां तस्मात्तेषां तद्भक्षणे हिंसा ॥७२॥ पश्च ऊमर कठऊमर अरु पाकर बर पीपर ये फल हैं पाँच असजीयोंका घर है पाँची खानेमें हिंसा है साँच ॥ भार: सुधीशन नाहिं खाते हैं अभक्ष्य हिमामय पहिचान 1 हिंसासे बचने के खातिर 'जीम' लगाम लगाने ध्यान ।। अन्वय अर्थ----आचार्य कहते हैं कि [ उदम्बरयुग्मं न्यग्रोधापपलफलानि सजानानां योनिः] कमर कठूमर ये दो तथा पाकर बर पीपर कुल ५ असजीवोंकी योनि या घर आयतन ) है तस्मा सभक्षणे रोषा हिंमा भर्थात ] इसलिये उनके खाने में उनके आश्रित ब्रमजीवोंकी हिंमा अवश्य होती है या होना संभव है । फलत: उन्हें नहीं खाना चाहिये । त्याग कर दिया जाय ) 11 ७२ ।। भावार्थ---जिस तरह मद्यमांसमधु और नवनीत हिंसाके आयलन होनेसे त्याज्य ( हेय } हैं, उसी तरह ऊमर कठूमर आदि पांच उदम्बर फल भी सजीवोंका आयतन ( योनिभूत । होने से अभक्ष्य हैं, खाने योग्य नहीं हैं, उन्हें छोड़ देना चाहिये. क्योंकि फल या लाभ थोड़ा और हानि (पाप) अधिक होती है। अतएव ये अनुपसेव्य और उन्हहफल जैसे हैं। अत: विवेकी पाचभोरु लोग इनका सेवन कभी नहीं करते....इनमें उड़ते हुए असंख्याते जोध दृष्टिगोचर होते हैं ....जो न खानेसे बच जाते हैं अर्थात् मरते नहीं है, उनको रक्षा होती है। यह सब रसनेन्द्रियका वशीकरण २७ P remac
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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