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________________ ससीलप्रकरण व्यवहार न करने ) का पक्का या अटल त्याग किया जाता है, वहीं दिग्वत कहलाता है ॥१३७॥ भावार्थ-लोकप्रसिद्ध स्थानोंतक चरतनेको मनवचनकायसे अटल प्रतिज्ञा करके दशों दिशाओंमें उस गर्यादाके आगे जीवनपर्यन्त कभी नहीं वरसना दिग्द्रत कहलाता है, उससे आगे सब तरहका व्यवहार छोड़ देनेसे वहाँ सभी पांचों पाप बन जाते हैं-नहीं लगते हैं अतएव उनसे व्रतो आत्माको रक्षा बराबर होती व हो सकती है, कोई सन्देहको बात नहीं है। प्रारम्भमें जबतक जीव संयोगी पर्याय में रहता है तबतक पूर्ण परिग्रह या पापोंका त्याग करना सम्भव नहीं होता ( असम्भव व अशक्य है ) अतएव क्रम-क्रमसे ही थोड़ा-थोड़ा त्याग किया जाता है तभी वह पूर्णताको प्राप्त होता है। ऐसी स्थिति में जीव अनादिकालसे असुद्ध या संयुत्ता अवस्था में ही रहता आया है अतः क्रम-क्रमसे ही उससे पृथक होना सम्भव है । आत्मशक्तिका भी विकास एक साथ पूरा नहीं होता। त ताका ला कायम रखो ये शनैः त्याग करते-करते आगे बढ़ना चाहिये, यह पूर्व परम्परा है। जब एक पाँव पूरा जम जाय तब दुसरा पाँव उठाया जाय अर्थात् दिग्व्रतमें परिपक्व हो जाने पर ही देशवत धारण किया जाय यह आदेश है-जिनाज्ञा है, अस्तु । इसका ध्यान रखना चाहिये, परन्तु दिन्नत यमरूपसे ( जीवनपर्यन्त ) होता है यह उसमें विशेषता है यह यान रखना चाहिये ॥१३७॥ आगे आचार्य दिग्वत धारण करनेका फल ( लाभ ) बतलाते हैं। इति नियमितदिग्भागे प्रवर्तते यस्ततो बहिस्तस्य । सकलासंयमविरहात् भवत्यहिंसावतं पूर्णम् ॥१३८॥ पद्य मर्यादा के भीतर सी ओ प्रवृत्ति चापमी करता है। मर्यादा के बाहर उसके सकल असंयम टरता है। सब उसके नित पझत्त अहिंसा त रक्षा तब होती है। इसी विधि से करते-करते पूर्ण अहिंसा पलली है ।।१३।। अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ इति नियमित दिमागे यः प्रवर्तते ] पूर्वोक्तप्रकार दिशाओंकी मर्यादा (दिग्व्रत) के भीतर जो अणुवतो प्राणो प्रवृत्ति करता है [ तस्य ततो बहिः सकलासंग्रमनिरहात ] उसके मर्यादाके बाहिर सम्पूर्ण असंयम ( हिसा) का अभाव होनेसे [ पूर्ण अहिंसा व्रतं भवन ] पूर्ण अहिंसावत पलता है अर्थात् उपचारसे प्राप्त हो जाता है ऐसा समझना चाहिये ॥१३८॥ भावार्थ-हिंसाका या असंयमका न होना हो 'अहिंसा वत' कहलाता है । तदनुसार मर्यादा के बाहर जब बिलकुल सम्बन्ध छूट जाता है---कोई प्रवृत्ति नहीं होती न कोई कारोबार होता
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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