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________________ SMANYWHERNAMAADHA m Malasawaldasesa परिग्रहपरिमाणाणुव्रत पाक्षि कदापि नहीं मिल सकती लब व्यर्थका विवाद क्यों करना? दिवा कषायके मूछो नामका परिग्रह नहीं होता योगजन्य परिग्रह अर्थात परद्रव्यका आगमन या सम्बन्ध या संचय, परिग्रहका स्प धारण नहीं करता-वह कपर२ अतराता जैसा रहता है। समवशरणादिकी अपार विभूति अन्त देवका परिग्रह नहीं माना जाता है, वह तो भक्तोंका कर्तव्य है-उससे वे ही परिग्रही बात है ऐसा समझना चाहिये । फलतः अतिव्याप्तिका लक्षण विरागियों में परिग्रहको लेकर घटिस नहीं होता। किम्बहुला..... मोद-इसी तरहका सामंजस्य (समन्वय ) श्लोक नं. १०५ में पेश्तर बैठाया गया है। अतएव उसको बारीकीस सभामा चोहित। धानी रक्षाकोका एकहो लक्ष्य है और वह संसारी भागी द्वेषी जीवोंको आरेक्षा है। कारण कि उक्त पाँच पापों एवं उनके त्याग आदिको चर्चाका असाचार गुणस्थानत्र मागंणास्थान हैं और वे सब संयोगी पर्याय में औपशमिकादि ५ पांच मावों से सम्बन्ध रखते हैं, उन्हींको अपेक्षा गुणस्थान मार्गणास्थान बने हैं। मूलकारण गाँध भाव हो है ( बखंडागम पुस्तक १) अन्तमें परिग्रहके भेद बतलाये जाते हैं। स्पष्टीकरणाय अतिसंक्षेपाद् द्विविधः स भवेदाभ्यन्तरश्च बाह्यश्च । अपमश्चतुर्दशविधो भवति द्विविधो द्वितीयस्तु ॥११॥ d Downloade पथ मूलभेद दो है परिमहके अन्तरंग बहिरंग जानो । अन्तरं पके भेद चतुर्दश, पहिरंग दी भिद मानी ।। सब मिलकर सोलह होते हैं..-क्रमसे इसका स्यार करें। परिग्रह सहित लोय अब प्राणी युक्तिवधू सब इसे च ॥१५॥ अन्यय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [ हिस्संक्षेपात स विविधः-आभ्यम्तर पाचश्व ] संक्षेपमें मह परिग्रह दो प्रकारका होता है (१) आभ्यन्तर या अंतरंग परिग्रह (२) बाह्य था बहिरंग परिग्रह । [ प्रथमः चतुर्दशविधा भवति ] प्रथम अर्थात् अन्तरंग परिग्रहके चौदह भेद होते हैं। द्वितीयः द्विविधः भवति ] और द्वितीय अर्थात् बहिरंग परिग्रहके दो भेद होते हैं। कुल १६ भेद समझना जो आगे बताए जानेवाले हैं ॥११५।। भावार्थ-परिग्रह मूल में दो प्रकारका होता है अन्तरंग और बहिरंग। इनमेसे वादी अन्यमतो ) केवल बाह्य परिग्रहको हो जानता व मानता है, अन्तरंग परिग्रहको नहीं जानता I. विस्तारसे २४ भेव है अर्थात् अंतरंग परिग्रहके १४ भेद और बाहापरिग्रहके १० भेव कुल २४ भेद होते हैं। Bharat
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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