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________________ २७२ पुरुषार्थसिपाय सच्चा परिग्रह वही सिद्ध होता है किम्बहुना । 'यत्र मूर्च्छा सर परिग्रहः ( ग्रहणं ) ऐसी व्याप्ति बराबर बनती है। उपचार या आरोप कई तरह के होते हैं ( १ ) कारण ( निमित्त ) में कार्यका आरोप जैसे 'अन्नं प्राणा:' ( २ ) कार्य में कारणका आरोप- जैसे उजेलेको दीपक कहना इत्यादि यथायोग्य संनिहिये। हर बाह्य परिभ्रमे निमित्तता इस प्रकार है कि उसके रहते हुये मूर्च्छा या ममत्वरूप परिणाम हुआ करते हैं बस इतना ही सामान्य निमित्त नैमित्तिकपता परस्पर पाया जाता है और कुछ विशेष नहीं पाया जाता, यह तात्पर्य है । अतएव निमित्तता ( लगाव ) को दृष्टिसे बाह्य धनधनयादि परिग्रह भी त्याज्य है- त्यागा जाना अनिवार्य है ।। ११३ ॥ मूर्च्छाको परिग्रहका लक्षण मानने में अतिव्याप्ति दोष ( वादीके तर्कके अनुसार ) नहीं आता, यह बताया जाता है । एवमतिव्याप्तिः स्यात् परिग्रहेस्येति चेद् भवेन्नैवम् । यस्मादकपायाणां कर्मग्रहणे न मूर्च्छास्ति ॥ ११४ ॥ पद्य केवल परके आगे से यदि परिग्रहवान् कहा जाये ? बिना काय कर्म आने पर बीतराग भी बंध जावे ॥ पर ऐसा नहीं होत विपर्यय, सूर्च्छा हो परिषष्ट होया । विन मूर्छा के दोष न आता, अतिब्बालिका भ्रम श्रोता ॥११४॥ अन्वय अर्थवादी कहता है कि जैन शासनमें जो परिग्रहका लक्षण ( मूच्र्छा ) किया गया है, उसमें 'अतिव्याप्ति' दोष आता है कारण कि वह परद्रव्य के ग्रहण या संग्रह करने रूप है । ऐसी स्थिति में उत्तर दिया जाता है [ एवं परिग्रहस्य अतिस्वातिः स्यात् ] आचार्य कहते हैं कि यदि तुम ऐसा कहते हो (शंका करते हो ) कि पूर्वोक्त परिग्रहका लक्षण अतिव्याप्ति दोष सहित है क्योंकि अलक्ष्य ( कषाय रहित वीतरागियों) में वह चला जाता है ( लागू हो जाता है ) अर्थात् वे भी कर्मनामक परद्रव्यका ग्रहण करते हैं। इसका खण्डन ( आचार्य ) करते हैं कि [ नैवं भवेत् यस्मात् अकवायाणां कर्मग्रहणे चर्च्छा नास्ति ] इस प्रकार अतिव्याप्ति दूषण नहीं है न हो सकता है कारण कि राग-कषाय रहित वीतरागियोंके मात्र कमका ग्रहण होना परिग्रह नहीं कहा जा सकता इसलिए कि वह मूर्च्छा ( राग-कषाय ) पूर्वक नहीं होता, खाली योगके द्वारा होता है । अतएव अतिव्याप्ति दूषण लागू नहीं होता, वह रूपाल गलत ( थोथा ) है । इसके सिवाय परिग्रहका विचार व कथन सरागियों ( सकषायों ) के माध्यम से है, उन्हीं में दोष ढूँढना चाहिये जो सपक्षरूप हैं ॥११४॥ भावार्थ - जहाँका कथन हो वहीं करना चाहिए तब फिट बैठता है । परिग्रहका कथन परिग्रहियों में ही लगाना ( जोड़ना चाहिये, न कि अपरिग्रहियों ( कषायरहितों) में । तथा निश्चय या अन्तरंग परिग्रहके विचार करते समय बहिरंग या व्यवहार परिग्रहसे दोष देना व्यर्थ है । उसको
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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