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________________ पुरुषार्मसिन्धुपाय मिज आसममें लीन शु हमा-सम्यक चरित कहता है। निज स्वभावक कारण इनसे बंध कभी नहिं होता है ॥ २१६ ॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि निश्चयनयसे [जामधिनिश्चिातः दर्शन मिति ] परद्रव्योंसे भिन्न अपनी आत्माका निश्चय अर्थात् श्रद्धान होना, सम्यग्दर्शन कहलाता है और [ आरमपरिभाभ बोध. इष्यते ! परद्रव्योंसे भिन्न अपनी आत्माका यथार्थज्ञान होना, सम्यग्ज्ञान कहलाता है ! तथा [आत्मनि स्थिति: श्चारित्रं] परद्रव्योंसे भिन्न अपनी आत्मामें स्थिरता अर्थात् लीनता होना, सम्यकचारित्र कहलाता है और ये तोनों आत्माके स्वभाव हैं। तब [ एतेभ्यः बंधः कुतः भवति ] इनसे आस्माका बंधन कैसे हो सकता है यह आश्चर्य है ? अर्थात् इनसे आत्माक बंधन ( संसार ) कभी नहीं हो सकता, कारपा कि स्वभाव या वस्तुका धर्म कभी बंधन में नहीं डालता उल्टा वह बंधनको काटता या छुड़ाता है ।। २१६ ॥ भावार्थ---'आत्मविनिश्चिति का यथार्थ रहस्य ( मतलब ) है 'आत्माके प्रति आस्तिक्या भाव' अर्थात् जैसा आत्मा है वैसा श्रद्धानका होना अर्थात् नास्तिकभावका नहीं होना अर्थात् विपरीतभावका { अन्यथापना ) नहीं होना । जैसे कि आत्माका यथार्थ ( असली ) रूप 'एकत्वविभक्त' है अथवा यह पर सब द्रव्योंसे भिन्न ( तादात्म्यसंबंधरहित ) और अपनी गुणपर्यायोंसे अभिन्न तादात्मरूप है ऐसा दत विश्वासका होना निश्चयसम्यग्दर्शन कहलाता है। इसी तरह आत्माके शुद्ध ( निश्चय ) स्वरूपका ज्ञान होना, सम्यग्ज्ञान कहलाता है और आत्माके शुद्ध स्वरूपमें लोन होना अनुभव करना सम्यक्चारित्र कहलाता है यह खास बात है, यही निश्चय मोक्षमार्ग है, साक्षात् मोक्षका कारण है। क्योंकि आत्मस 'ज्ञानधनरूप' है उसमें और कुछ नहीं भरा है ( अवगुण नहीं है ) सिर्फ ज्ञानदर्शनगुण ही कूट-कूटकर भरा हुआ है । जबतक ऐसा सत्य व सहो अपना खुदका ज्ञानश्रद्धान न हो और पररूपका ही ( संघोगीपर्यायरूप ) ज्ञानश्रद्धान हो तबतक आत्मकल्याण नहीं हो सकता । निजघरका पहिले परिचय पूरा होना ही चाहिये ।।२१६।। शंका व समाधान आचार्य कहते हैं कि-सम्यग्दष्टिवती ( चारित्रधारी ) के तीर्थकर और आहारकप्रकृतिका बंध होता है ऐसा शास्त्र में उल्लेख है। उससे वादोका कहना है कि-सम्यग्दर्शन भी बंघका कारण है। उसका खंडन इस प्रकार है कि बादीको जो शक या धारणा है कि उस बंधका कारण सम्यग्दर्शन और व्रत ( चारित्र) है, यह उसे कोरा भ्रम है। असलमें उस बंधका कारण शुभराम अर्थात् करुणाभाव है ( दयापरिणाम है ) किन्तु सम्यग्दर्शन और व्रत नहीं है, क्योंकि वे दोनों मोक्षके ही कारण है बन्धके कारण नहीं है। यही बात आगे बललाते हैं सम्यक्चारित्राभ्यां तीर्थकराहारकर्मणोः बंधः । योऽप्युपदिष्टः समये न नयविदां सोऽपि दोषाय ॥ २१७ ॥ १. सकषायत्त्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादसे स बंध: ॥ २॥ त० सू० अ०८ सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्बराबालतपांसि देवस्य ॥२० । सम्यक्त्वं च ।। २१ 11 सू० अ०६
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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