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________________ अन्तिम निष्कर्ष Sandiniclinialatserietalianciateria.tan.xmomMARRIA ... wedeighSustainagiri.. सम्यग्दृष्टि चरित्रीके भी, कमबंध जो होता है । तीर्थकर श्राहार प्रकृतिका, आगम यह असलाता है। उसका कारण नहिं दर्षन है, चारित भी नहिं होता है। मय प्रमाणका आमने हारा, भ्रममें फभी न पड़ता है ।। बंध करत है गाय साथी, जो औगुण कहलाता है। गुण हैं दर्शनधारित दोनों, उनसे बन्ध म होता है ।। २१७ ॥ अन्वय अर्थ--आचार्य कहते हैं कि [समये यः सम्यकथारेत्राभ्या तीर्थकराहारकमणोः बंध उपदिष्टः ] आगममें या जैनशासनमें जो यह कहा गया है कि सम्यग्दर्शन व सम्यक्चारित्रके द्वारा या साथ में रहते हुए तीर्थकर और आहारक पुण्यकर्मका बंध होता है [ सोऽपि नयविदा दोषाय म भवति ] उससे भी नयप्रमाणके ज्ञाता पुरुषों के मन में कोई भय ( शंका ) चिन्ता-शल्य-धबड़ाहट या आकुलता नहीं होती, कारण कि वे मयादिसे समाधान या संतोष कर लेते हैं ।। २१७ ॥ भावार्थ- जैन शासन में, स्याद्वादनय अर्थात निश्चय व्यवहारनयको अपेक्षा या द्रव्यार्थिक पर्यायाथिक नयकी अपेक्षासे तमाम शंकायें व भ्रम दूर हो जाते हैं। सबका संतोषजनक समाधान हो जाता है यह विशेषता पाई जाती है। यहाँ पर जो शंका उठाई गई है कि सम्यग्दर्शन व सम्यकृयारित्र ( स्वभाव या गुण या धर्म ) से, तीर्थकर व आहारक नामक पुण्यकर्मका बंध होता है वह सिर्फ भ्रम है या नयविवक्षाको नहीं समझना है। सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र ये दोनों स्वभाव हैं, उनसे बंध नहीं होता किन्तु उनके साथ जो रागादिक विकारीभाव ( कपायरूप) होते हैं, उनसे ही वह बंध होता है, वह भी व्यवहारनयसे बंध माना जाता है। कारण कि संयोगीपर्यायमें साथ-साथ स्वभावभाव { सम्यग्दर्शनादि ) विभावभाव ( रागादिक ) रहते हैं और आत्मा के प्रदेशोंमें ही रहते है परन्तु कायं अपना-अपना पृथक करते हैं स्वभावभाव संवर व निर्जरा करते हैं ( कर्मबंधनका छूटना रूप भोक्ष करते हैं ) और विभावभाव, आस्रव व बंध करते हैं। लेकिन इस असल बातका पता (ज्ञान) न होनेसे, संगादोष जैसा दोष, साथवाले ( सम्यग्दर्शनादि) को भी व्यवहारनयसे लगा दिया जाता है, जो असत्य है ( अभूतार्थ है ।, यह समाधान है। तभी तो तत्त्वार्थसूत्रमें संयोगीपर्यायकी अपेक्षासे व्यवहारनयकी मुस्थताकर बन्धके कारणों में सरागसंयमादिचारित्र एवं सम्यग्दर्शनको देवायु ( पुण्यकर्म ) के बाँधनेवाला बतलाया है किन्तु निश्चयसे बैसा नहीं है, साथमें रहने से साथी अपराधी था दोषी नहीं हो जाता यह नियम है ! दोषी वही होता है जो दोष ( अपराध ) करता है, और बहो सजा भोगता है, दूसरा नहीं। सबका सारांश निम्न प्रकार है। जो शास्त्रोंके ज्ञाता प्राणी मयक झाला होते हैं। उनको बांका महिं होती है, दर्शम चारित बंधक है। तीर्थकर माहार प्रकृतिका बंध जु होला इग्बतमें। उसका कारण योगकषायौ, साथ रहत जो उस पदमें ।। २१ 11 १. सम्यग्दर्शन व चारित्रके समय या उनके साथ । aliaRRAINI AL
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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