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________________ सम्यकचारित्र भावार्थ-योगोंकी प्रवृत्ति तो चौदहवें गुणस्थानके अन्ततक विशेष पाई जाती है, जिससे हिंसाका होना ( श्वासोच्छ्वासादिसे जीवघात होना) कल्पनामें आ सकता है, परन्तु सिद्धान्त में ऐसी बात नहीं मानी व कही गई है, कारणकि कहाँ कषायके न होनेसे सब कल्पना व्यर्थं हो जाती है अर्थात् वहां रंचमात्र हिसा नहीं होती। वहाँ पर योगोंसे कर्माकर्षण मात्र होता है किन्तु विना कषायके स्थिति अनुभागरूप बन्धन नहीं होता, अतः हानि नहीं होती। जले जन्तुः धले अन्तुः आकाशे जन्तुरेव च जतुमालाकुले लोके कथं भिक्षुरहिसकः ? --- राजवार्तिक । इसका उत्तर यही दिया गया है कि कषायभावोंके बिना जीवोंसे भरे इस लोक विहार करते हुए भी भिक्षु या साधुके हिसा नहीं होती इत्यादि । अतएव विना इच्छा या कषायके प्रवृत्ति जन्य हिंसा किसी जीवके नहीं होती, चाहे दृश्यमान किसी जीवका विधात क्यों न हो जाय, यह विशेषता है। सब दारोमदार । निर्भरता) कषायों पर ही है, किम्बहला । अतः कषायोंका त्याग करना अनिवार्य है। श्री उमा स्वामी आचार्यने तभी तो "प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरीपणं हिंसा' ऐसा सूत्र लिखा है, केवल प्राणध्यपरोपण नहीं लिखा है अन्यथा वीतरागी साधुके कदाचित् अतिव्याप्ति यूषण आजाता जो अलक्ष्य है। प्रमाद शब्दका अर्थ तीव्रकषायका होना है सो वहाँ कंषाय नाममात्रकी नहीं रहती यह तात्पर्य है। बाह्य द्रव्याहिंसासे ही मतलब नहीं है असली मतलब भावहिंसासे है ॥४५॥ इसीकी पुष्टि में आगेका श्लोक भी लिखा जाता है व्युत्थानावस्थायां रागादीनां वशप्रवृत्तायाम् । नियतां जीवो मा वा धावत्यग्रे ध्रुवं हिंसा ॥४६|| पद्य रागादिकके तीन उदय जीव प्रमादी हो जाता। स्मथर नहीं रहती हैं इसको पागल जैसा बन जाता ।। जीब मरें या नहीं मरं पर, निज स्वभाव धाता जास।। हिंसा पाप यहीं है निश्चय, उसका त्याग किया जाता ॥४॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ रागादीनां चशप्रवृत्तायां भ्युत्थानावस्थायाम् ] रागादिकषायोंके तीव्र उदयमें ( बेगमें ) जोबोंकी प्रमाद अवस्था ( विवेकरहित दशा) हो जाती है उस १. जलथल नभ सर्वत्र जीव भरे हैं जब हिंसा नहीं बना सकती फिर साधु अहिंसावती कैसे हो सकता है ? . नहीं हो सकता इत्यादि प्रश्न है । उसका उसर भी दिया है कि भावोंके अनुसार सब होता है। २. असावधानदशा ( विवेक रहित चित्तवृत्ति ) होश-हवाश रहित मदोन्मत्त जैसी हालत । प्रमाददश ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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