SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ খালি समय [ जीवो म्रियता व मा नियसो हिंसा अग्रे धवं धावति ] चाहे अन्य जीव मरें या न मरे परन्तु निजकी हिंसा तो नियमसे आमे २ होती ही है। अर्थात् पहिले अपने स्वभावका घात होनेसे हिंसा टल----वच नहीं सकती, जो यथार्थ वस्तु है ।।४६।। भावार्थ:-हिसाके प्रकरणमें केवल द्रव्याहिंसाकी मुख्यता नहीं की जाती, न यहाँपर की गई है। हाँ, लोकव्यवहारमें बराबर द्रष्यहिंसाको मुख्यता या प्रधानता दी जाती है, जो उपचार है। क्योंकि परजीवोंका घात विना उसकी आयु पूर्ण हुए कोई कर ही नहीं सकता, तब वह पापी कैसा ? वह तो खाली निमित्तमात्र है, सो कोई-न-कोई निमित्त मिल ही जाता है। ऐसी अवस्थामें अतिव्याप्ति या अव्याप्ति दूषण, नहीं बन सकते जबतक कि द्रव्य प्राणोंका घात बीच में न हो या न किया जाय इत्यादि। अतएव हिंसाका लक्षण भावहिंसापरक है, द्रव्यहिंसापरक नहीं है, कारण कि वह पराश्रित होनेसे उपचारमात्र कथन ठहरता है। इसके सिवाय क्रोधादिक करनेसे तुरन्त ही पर जीवका मरण नहीं हो जाता, सब हिसा काहे की? यह प्रश्न उपस्थित होता है । फलतः स्थाश्रित भावरूप हिंसा ही यहाँ ग्रहण या स्वीकार करना है इस्यादि निर्विवाद जानना। हिंसा या घात दो तरहका होता है (१) आत्मघात, (२) परघात, सो यहाँपर अपने स्वभावका घात होना ही इष्ट है, किम्बहुना। अन्य या परघात इष्ट नहीं है। प्रमाद अवस्थामें जीव सावधानीसे कार्य नहीं करता यदा-तद्वा करता है, उस समय चाहे कोई अन्य जीव नहीं भी भरे तो भी उसके तीव्र कषायरूप प्रमादके सद्भावमें अपनी भावहिंसा' तो होगी हो-वह वच नहीं सकती अर्थात् उसके स्वभावभावका घात होना निश्चित है। उक्तं च प्रवचनसारे-- मरदु व जियदुव जीवो अपदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयवस्स पत्थि बन्धो हिंसामेतेण समिदीसु ॥२१७१४६।। इसीका खुलासा आगे किया जाता है.---- निश्चयहिंसा ( स्वाश्रित) यस्मात् सकषायः सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम् । पश्चाज्जायेत न था हिंसा प्राण्यन्तराणां तु ॥४७|| MANANE, जीव पाय सहित अब होता, प्रथम घास अपना करता। पीछे होय न होय अन्यका घात उसीसे नहिं फसता ।। जब कषाय होसी आत्मा में 'भाव प्राण' धाता जाता। सरक्षण बह फल मिलस उसीको जो कषायभाव हि करता ॥१७॥ अन्वय मर्य-आचार्य कहते हैं कि [ यस्मात श्रास्मा सकषायः सन् प्रथम आरमानं आत्मता हन्ति ] जब यह आत्मा कषाय भाव सहित होता है तब वह पहिले स्वयं अपना ही घात करता है, अन्यसे प्रयोजन नहीं रखसा अर्थात् उसकी प्रतीक्षा नहीं करता। इसी कारण ( हेतु ) से (सु पक्षात
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy