SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६२ पुरुषार्थसिद्धयुयाय होता है, ऐसा जिनवाणीका संक्षेप कथन है अर्थात् संक्षेपमें { सूत्ररूपमें अहिंसा व हिंसाका लक्षण बताया गया है, इसे समझना चाहिए। यह निश्चय रूपसे अहिसा व हिंसाका लक्षण जानना ( स्वाश्रित है ) व्यवहारनयसे द्रव्य प्रागों की बात होना हिंसाका लक्षण है ( पराश्रित है ।।४।। भावार्थ--- असल में रागादिक बिकारी । अशुद्ध ) भाव हो स्वभाव भावके घातक होनेसे हिंसक व हिंसारूप हैं । अतएव महान् पुरुषोंने पेस्तर स्वभाव भावका आलम्बन लेकर उन्हींका क्षय किया है, जो भावकर्मरूप ब आत्माके प्रदेशोंमें अवस्थित, ( संयोगरूप ) रहते हैं। उनका आत्माके साथ बड़ी धनिष्ट सम्बन्ध है व पुराना है। उन्हींकी बदौलत यह संसारवृक्ष विराटरूप हुआ है। अतएव समादिरूप हिंसा ही महान् पाप है, ( अधर्म है ) तथा रागादिकके अभावरूप अहिंसा ही महान धर्म है, ऐसा समझ कर वही अहिंसा रूप परम धर्म प्राप्त करना चाहिए तभी कल्याण होगा । इसके विपरीत 'द्रव्याहिंसा' ( जीवधात ) और भावहिंसा (क्रोधादिकषाय भाव } ये कभी धर्म नहीं हो सकते, न उनसे कल्याण हो सकता है यह नियम है। अतएव भ्रममें नहीं पड़ जाना चाहिये, हमेशा सत्यका आलम्बन लेना चाहिए, अस्तु । सत्यकी ही विजय होती है असत्यकी नहीं, यह नीति है ॥४४॥ __ आचार्य कहते हैं कि सदाचारी जीवोंके रागादिकके अभावमें, विना कषायके कदाचित अन्य जीवोंकी हिंसा (प्राणघात ) हो भी जाय तो भी उनको हिंसाका फल नहीं लगता इत्यादि। युक्ताचरणस्य सतो रागाचावेशमन्तरेणापि । न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यरोपणादेव ॥४५|| योग्य आचरण करने वाला जब तक राग नहीं करता जीवघातके होने पर भी हिंसा पाप नहीं लगता ।। हिंसा मूल विभाव कहा है जो स्वभावका घातक है। अतः त्यागना उसका उत्तम अन्य त्याग तस साधक है ।४५|| अन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [ अपि युक्ताधरणस्थ सतः रागागावेशमन्तरेण ] और खास तस्यकी बात यह है कि सावधानीपूर्वक अर्थात् शिथिलाचार रहित आचरण करने वाला धावक-साधु महात्मा, रागद्वेषादिकषायके बिना ( दुरा इरादा न हो तो) [प्रायवरोपगादेव जास्तु हसा न हि भवति ] कदाचित् अकेले प्राण घात हो जानेसे कभी हिंसा पापका भागी नहीं होता, अर्थात् उसे हिंसा पाप-नहीं लगता, ऐसा सारांश समझना चाहिये । क्योंकि हिंसा, विमा कपाय (क्रोधादि ) के अकेले योग ( प्रवृत्ति ) से नहीं होती ।।४५।। १. योग्य आगमके अनुकूल सदाचाररूप । अर्थात् समिति या सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति करने वाला। २. रागद्वेषादि विकार । ३. निमित्तकारण । R -55
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy