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________________ ३३२ पुरुषा पाय इसी तरह व्यवहारमय से व्रतका सम्बन्ध बाह्य भोगोपभोगको चोजोंके छोड़ने से है और अव्रतका सम्बन्ध भोगोपभोगकी चीजोंके ग्रहण करनेसे ( त्याग न करने से ) है । ऐसी स्थितिमें उनका जानना जरूरी है। तथा हिंसा व अहिंसा हेय व उपादेयका निश्चय व्यवहारसे जानना भी अनिवार्य है। तभी व्रत धारण करना, पालन करना बन सकता है। तथापि व्यवहारको मुख्यता होनेसे व्यवहार पद्धति ( चरणानुयोग ) के अनुसार साधारण आदि वनस्पतियोंका त्याग करना अनेक दृष्टियोंसे हितकर है, इन्द्रियसंयम और प्राणिसंयम दोनों पलते हैं लोकमें प्रतिष्ठा होती है- दूसरे जीव अनुकरण करते हैं-सदाचार पलता है इत्यादि लाभ होता है। तथा मन्दकषायरूप शुभ परिणामों से पुण्यका बन्ध होता है, पापका बन्ध नहीं होता, तब बाह्यविभूतिके पानेसे जीवन सुखमय ate है यही बड़ा लाभ है ।।१६२ || अनन्त जीवोंके विधात होनेका खुलासा इस प्रकार है । जीव दो तरह के होते हैं ( १ ) असजीव ( २ ) स्थावर जीव | स्थावर जीवोंमें अनन्तकाय जीव हुआ करते हैं । यथा पाँच स्थावरोंमें, वनस्पतिकाय स्थावरके दो भेद माने गये हैं ( १ ) साधारण वनस्पतिकाय ( २ ) प्रत्येक वनस्पतिकाय तथा साधारण वनस्पतिकाय के दो भेद हैं- ( १ ) नित्यनिगोद ( २ ) इतर निगोद। इनमेंसे साधारण जीवों ( वनस्पतिकाय) का शरीर पिण्डरूप अनन्त जीवोंका मिला हुआ रहता है अतएव जब कोई भोजनार्थी पिण्डरूप ( स्कंध नामक ) वनस्पतिका अर्थात् शाक-भाजो आदिका उपयोग ( खाना) करता है तब उसके आश्रित रहनेवाले अनन्ते जीवोंका विधान ( हिंसा ) अवश्य हुआ करता है। ऐसी स्थिति में भोगोपभोगत्याग शिक्षाव्रतके पालनेवाले अणुवती उन अनन्तकाय (साधारण) वनस्पतियोंको खानेका त्याग कर देते हैं, जिनमें लाभ कम और हिंसा' अधिक होती है। विवेकी जन अपना बालचलन बड़े विचारके साथ करते हैं अर्थात् यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करते हैं, यद्वा तद्वा ( शिथिलाचार पूर्वक ) प्रवृत्ति नहीं करते, यह विशेषता रखते हैं, किम्बहुना । हमेशा सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र में कोई दोष ( अतिचार ) न लगने पावे यह विचार या लक्ष्य रखते हैं ||१६२ || विशेषार्थ साधारण वनस्पति में प्रत्येक भेदको स्कन्ध कहते हैं, जिसमें साधारण वनस्पतिसे असंख्यातगुणे जीव रहते हैं । ( जैसे अपना शरीर ) उसमें अन्दर ( हाथ पाँव जैसे ) असंख्यात - लोकप्रमाण जीव रहते हैं। एक अन्डर में असंख्यात लोकप्रमाण पुलवी पाये जाते हैं ( जैसे हाथ में अंगुलियाँ ) ( एक पुलवी में असंख्यात लोक प्रमाण आवास रहते हैं । जैसे अंगुलियों में पोराबूटी ) एक आवास में असंख्यात लोक प्रमाण निगोद शरीर ( जैसे अंगुलीके पोरोंमें रेखाएँ ) एक १. उक्तं च अल्पफलबहुविधादान्मूलकमार्द्राणि शृङ्गवेराणि । - aकमित्येवमवहेयम् ॥ ८५॥ रत्न० श्र० rain free अर्थ-- अल्पफल या तुच्छफल, जिनमें रात्रिक कम हों और ओब हिंसा अधिक हो, ऐसे गोले ( सचित्त ) मूली, गाजर, अदरख, नेनू ( धृत), नीमकी कोपल-फूल - केतकी ( केवड़ा ) के फूल इत्यादिका त्याग कर देना चाहिए यह कर्त्तव्य है व्रतीका ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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