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________________ शिक्षा करण ३३३ निगोद शरीर में सिद्धराशि अनन्तगुणें जीव पाये जाते हैं । जैसे रेखाओं में अनेक प्रदेश } | इस प्रकार साधारण बनस्पति के एक टुकड़ेमें असंख्यात जोब रहते हैं जिन्हें जिला लोलुप खाते हैं एवं विघात करते हैं ॥ १६२॥ आचार्य भोजनमें अनन्तकायवनस्पति (साधारण) का त्याग करने के सिवाय और भी अमर्यादित नवनीत (मक्खन) आदिका त्याग करना अनिवार्य है, जिसमें बहुत आंव हिंसा होती है - यह बताते हैं । नवनीतं च त्याज्यं योनिस्थानं प्रभूतजीवानाम् । यद्वापि पिंडशुद्ध विरुद्धमभिधीयते किंचित् ॥ १६३॥ पद्य भोजन में मैनू नावामा जो जावोकी योनि है । अथवा पिंड शुद्धि नहिं गती जाँ अशुा ठानी है ।। पिंशुद्धि कई तरह होता है श्रावक अरु मुनि प्रतियों थायोग्य उसको करना है, दृष्टि र रक्षा का || १६३ || अन्वय अर्थ -- आचार्य कहते हैं कि श्रावकका कर्तव्य है कि वह | पिशुद्धी प्रभूतजीवानां योनिस्थानं नवनीतं च त्याज्यं ] भोजनको शुद्धिके लिये आहार देने के ग्रासमें असंख्यात जीवोंकी योनि स्वरूप अशुद्ध ( अमर्यादित ) नेनू ( घृत को कतई न देवें, तभी शुद्ध निर्दोष निरन्तराय भोजन देना कहलाता [य किंचित विरुद्धमभिधीयते तदपि स्थापयं ] अथवा अकेला नैनू ही नहीं किन्तु जो कोई भी पदार्थ पिडबुद्धिया आहारशुद्धि में वर्जनीय ( विरुद्ध अभक्ष्य ) हो उसका भी त्याग कर देना चाहिये अर्थात् उसको म स्वयं ग्रहण करे आदि) को भी दे, ग्रह तात्पर्य है || १६३॥ और अन्य व्रतियों (मुनि भावार्थ- शुद्ध आहार पानका उपयोग करना व्रती नहीं कर सकता वह व्रती बनने वा कहलानेका पात्र नहीं है। व्यवस्था है, उसके अनुसार चलना व्रतोकी कर्तव्यनिष्ठा है, ती नहीं बन सकते । इसीलिये अष्टमूलगुणधारी ही व्रती बन सकता है यह नियम रखा गया है । उसीके भीतर सब रहस्य भरा हुआ है । फलतः व्रती के लिये अभक्ष्य त्यागकी ( हिंसामय भोजन छोड़ने की ) अनिवार्यता है। व्रतीका भोजन-पान शुद्ध ( निर्दोष -हिसारहित ) होना ही चाहिये, इस कठोर सत्यको कभी नहीं भूलना चाहिये अन्यथा सत्र कार ( व्यर्थ ) है । मूलबार संयमीका पहिला कार्य है जी ऐसा जैनशासन में यहीं मुख्य और आय अभक्ष्य भक्षण करनेवाले जीव कभी १. व्रतीका भोजन श्रावकके आधीन हैं अतएव दाता श्रावककी पहिले शुद्ध भोजन करनेका नियम होना चाहिये तभी गलती न हो सकनेसे विदोष पुण्यका लाभ होता है । गाणं च । २. उन उम उपादण एराणं न संजोजणं इंगाल धूभ कारण अहिा पिसुद्धी दु || २ || मूलाचार पिडशुद्धि अधि० पृष्ठ २३०
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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