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________________ पुरुषार्थसिद्धय अनगारधर्मामृत freशुद्धि आठ प्रकारसे बतलाई गई हैं, जो विशेषरूप है वह तो पात्रदान देनेवाले श्रावकको उनके लिये करना ही चाहिये किन्तु अपने लिये भी अभक्ष्य या अशुद्ध भोजन का ग्रहण करना त्याग देना चाहिये । विशुद्धि या भोजनशुद्धिका प्रभाव (असर) उपयोग या मनपर विशेष पड़ता है। अभी तो है जैसा खाये अन्न सेसा होवे मन' इत्यादि । श्वेताम्बर आदिमत में मुनि या साधुको नैनूका आहार देना माना गया है, उसका यह खंडन भी है । अस्तु, मर्यादित नैनू बनाम घृत सभी शुद्ध हो सकता है जबकि दूधसे लेकर अन्त तक विधिपूर्वक शुद्धि की जाय अर्थात् दूध लगाकर छानकर तुरंत अग्निपर सपाया जावे, ( अन्तर मुहूर्त के भीतर ) पश्चात् उसको शुद्ध जाउनसे जमाया जावे अर्थात् प्रासुक जाउन होना चाहिये । उसके बाद नैनू निकालने पर तुरंत ही अर्थात् अन्तर्मुहूर्तके भीतर ही अग्निपर तपाया जाये और छानकर उपयोग में ( खाने में ) लाया जाय बस वही मर्यादित व शुद्ध घी है किम्बहुना | वहीं व्रती भक्ष्य है दोष अभक्ष्य है । ३३४ नोट ---वृतशुद्धि ( शुद्ध घां ) के सम्बन्धमें आठ पहर या चार पहरका विचार पीछेकी कल्पना है। कारण कि जब दूध ( मूल ) से ही शुद्धता बरती जाय तब आठ या चारका विकल्प करना या उठाना ही व्यर्थ है वह कोई महत्व नहीं रखता। नैनू घृतको पूर्वपर्याय है ( मक्खन रूप ) ऐसा समझना चाहिये || १६३|| व्रत के यद्यपि प्रयोजनभूत भोगोंका त्याग करना भी पद व शक्तिके अनुसार होता है तथापि प्रयोजनभूत में भी दिन रात्रिका परिमाण करना बतलाते हैं । अविरुद्धा अपि भोगाः निजशक्ति मपेक्ष्य धीमता त्याज्याः । अत्यज्येष्वपि सीमा काकदिवानिशोपभोग्यतया ॥ १६४ ॥ पा जो है सेव्य पदार्थ वी के शतिप्रमाण उन्हें त्यागे 1 अरु अत्याज्य पदारथ जो हैं दिन रात्रिमा उनको त्यागे ॥ है कय त्रीका सीमित योग्य अयोग्य कोई भी हो । रागद्वेष हूँ उसके क्रम क्रमसे बड़े भागी हो ॥ १६४ ॥ aa अर्थ संयोजन दोष ४, कुल - उद्गम दोष १६, उत्पादन दोष १६ एषणा दोष ( भोजन दोष ) १०, { ४६ दोष रहित या अंगार दोष, धूम दोष, कारण शेष ऐसे सामान्यरूप आठ दोष रहित पिंड शुद्धि होना चाहिए, तो मुनि ग्राम (कवलाहार ) ले सकता है अन्यथा नहीं। व्रत धारण पालन करना सरल नहीं हूँ की धार है ऐसा समझना चाहिये । १. पदके अनुकूल अर्थात् प्रयोजनभूत पदार्थ । २. ग्राह्य या सेवन करने योग्य पदार्थ । २. बड़े भाग्यवान् मुनि मादि पदवीधारी ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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