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________________ पुरुषार्थ सिपा अन्वय अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ हि कारणविशेषात् कार्यविशेषः निर्बाधं संसिद्धयेत् ] निश्चयrयसे यह नियम है कि 'जैसा कारण ( द्रव्य ) होता है वैसा ही कार्य होता है, अर्थात् कारण विशेष ( परिणामी द्रव्य विशेष ) हो तो कार्य विशेष अवश्य होगा ऐसा निर्विवाद निर्धार होता है - इस निर्णय में किसीको विवाद नहीं हो सकता । उदाहरण स्वरूप | औधस्यण्डयोरिव माधुरीतिभेद व ] जिस प्रकार दूध और खांडरूप कारण ( द्रव्य ) से अर्थात् उनमें रहनेवाली विशेषता ( माधुर्य ) से खानेवालोंको प्रीति भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है अर्थात् कमबढ़ प्रीति होती है-- दूधमें कम प्रीति और खांडमें अधिक प्रीति होती है ।। १२२|| *८० भावार्थ- प्रीति (मूर्च्छा या रुचि भेदका कारण, निमित्तको दृष्टिसे ( व्यवहारसे ) बाह्यपदार्थ ( भोगोपभोगके साधन ) होते हैं या माने जाते हैं जैसे कि दूध कम मीठा होता है अतएव उसमें कम प्रीति ( मूर्च्छा या आसक्ति ) होती है तथा खांड़ ( शक्कर ) में अधिक मिठास होनेसे उसमें अधिक रुचि होती है ऐसा देखा जाता है। इस न्यायसे लोकमें 'कारणगुणाः कार्यगुणमारभन्ते' कारण के समान कार्य होता है ऐसा कहा जाता है। तदनुसार अन्तरंग निमित्तकारण मूर्च्छा माना जाता है, उसके अनुसार बाह्यपदार्थों ( परिग्रहों) में अधिक या कम प्रीती होती है। अर्थात् तीव्र मूर्च्छा हो तो भोगोपभोगके साधनों ( विषयों) afee या तीव्र रुचि प्रीति या Referrer or fद्ध होती है और यदि मन्द मूर्च्छा हो तो कम रुचि प्रोति या आसक्ति होती है, इत्यादि भेद है। यहाँ पर यह विचारणीय है कि जड़ पदार्थों ( दुग्धादि ) में मधुरता कमबढ़ कौन करता है ? उत्तर में कहना होगा कि यह सब स्वभावसे होती है, कोई परद्रव्य उसमें वह पैदा नहीं कर देता- वह स्वभाव सिद्ध है, पारिणामिक है। अन्यथा मानने पर वस्तुकी स्वतन्त्रता नष्ट होती है । इसी तरह कमती-बढ़ती मूर्च्छा भी स्वयं स्वोपादानके स्वतः परिणमनसे होती है व मिटती है, उसमें परद्रव्यको कारण मानना अज्ञान या व्यवहार है, जो स्वतन्त्रताका बाधक है। ऐसी वस्तु स्थिति है । तथापि निमित्तको दृष्टिसे बाह्यपरिग्रह भी हैय हैं, क्योंकि परस्पर निमित्त नैमित्तिकता भानी जाती है । अस्तु । 1 नोट- निश्चयrयकी अपेक्षा 'कारणविशेषका अर्थ' उपादान कारणको विशेषता मानना चाहिये और व्यवहारनयकी अपेक्षासे 'कारण विशेषका अर्थ निमित्तकारणकी विशेषता मानी जाती है, यह खास भेद है । इसी व्यवहारका आगे दृष्टान्त द्वारा खुलासा किया जानेवाला है । अस्तु ॥१२२॥ आगे आचार्य निमित्तकारणकी मुख्यतासे प्रीतिभेद ( मूर्च्छा भेद ) बतलाते हैं अर्थात् हाका कथन करते हैं । माधुर्य्यप्रीतिः किल दुग्धे मन्देव मन्दमाधुर्ये । सैवोत्कटमाधुर्ये खंडे व्यपदिश्यते तीव्रा ॥ १२३॥
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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