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________________ परिप्रहपरिमाणाम are अल्प मिठास सहित वस्तु मैं अब प्रीति होती है मिस । जैसे दूध पदारथ माहीं, अरुप प्रीति रखता है किस 11 बहुत मिठास सहित प्रस्तुमें, अधिक प्राति होती है नित। जैसे खांड पदारय माही, तीन प्रीति रखता है चित्त ॥१२३॥ अन्वय अर्थ- आचार्य दृष्टान्त देते हैं कि किस मन्तुमाधुय्यं दुग्धे मन्द माधुय्यप्रीति: ] जिस प्रकार निमित्तको अपेक्षा स्वभावत: ( लोकमें ) थोड़े मिठासबाले दूध स्वभावस: मन्द ( अल्प) प्रीति या मूच्र्धा-रुचि होती है। और [ उत्कटमाधुश्य खंजे सैव हीघा न्यपदिश्यते ] अधिक मिठासवाली खांड़ ( शकर ) में वही मूर्छा, प्रोति या चि, स्वभावत. तीन या अधिक होती है। उसी तरह इष्ट पदार्थोंमें अधिक और साधारणपदार्थों में कमती रुचि ( मूच्छी ) होती है । अतः ऐसा समझना चाहिए कि भेदका कारण परपदार्थ है जो व्यवहार में सत्य है और वैसा माना भी . . जाता है ॥१२३॥ भावार्थ-लोकमें दृश्यमान बाह्यपदार्थों ( निमित्तों ) की हो मुख्यता मानी जाती है..... उसीके द्वारा कुल कार्य होते हैं, ऐसा लौकिकजन मानते हैं और इसका कारण एक ही कालमें उनका मौजूद रहना है। लौकिकजन बहिर दृष्टिले ( नेत्रोंसे ) देखते हैं, अतः उन्हें भीतरी वस्तु नहीं दिग्वती, तब उसका उन्हें महत्त्व मालूम नहीं होता। यदि कहीं वे अन्तर दृष्टिसे ( भेदज्ञान से ) देखले होते तो उन्हें निःसन्देह सत्यार्थताका पता लगता और वे उस तरफ रुचि या प्रोति रखते उसका महत्व वर्णन करते इत्यादि। यो खास कमी मियादप्रिया लौकिकानों के रहती है। और सम्यग्दष्टि भेदज्ञानीको अन्तरष्टि होनेसे वह भीतरी असलीतत्व समझ लेता है ब हेयो. पादेयका बोध हो जानेसे वस्तुके यथार्थ स्वरूपको अपनाता है, उसी में संलग्न होता है। उसकी पराश्रितता या पराधीनता छूट जाती है। उसे उपादान व निमित्तका यथार्थ ज्ञान होनेसे बह कभी भूल या भ्रममें नहीं पड़ता, वह सत्यका उपासक बन जाता है। यदि कदाचित संयोगी पर्यायमें उसकी व्यवहारधि होतो भी है तो वह उसमें भूलता नहीं है, उसको उपादेय नहीं मानता न प्रसन्न होता है उसमें उसे दुःख ही होता है और उसको हटानेका प्रयत्न ( पुरुषार्थ ) करता है, लेकिन उस स्वकीयपर्याय या परिणमनका कर्ता पुरुषार्थ द्वारा नहीं बनता, यह कर्तृत्व त्यागता है। उपादानतासे का होता है निमित्ततासे का नहीं होता इत्यादि समझना चाहिये ।। १२३ ॥ नोट --सम्यग्दष्टि बाह्यपरिग्रह अधिक होनेपर ( चक्रवर्ती जैसा) भी निष्परिग्रही जैसा अल्प मुच्छावान् । रागी ) है और मिथ्याष्ट्रि बाहिरमें अल्प परिग्रह होनेपर मो भीतर रुचि होनेसे अधिक परिग्रहवाला माना जाता है। अतएव बायपरिग्रहके पीछे मूच्छो मन्द या तोत्र नहीं मानी जा सकती. यह तात्पर्य है । वह तो स्वत: ही वस्तु ( आस्मा ) का परिणमन है, अतः वह ही उसका कर्ता व भोक्ता माना जाता है ऐसा जानना ॥ १२३॥
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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