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पुरुषार्थसिद्धय
पद्य
बहुत इरादा होने पर यदि हिंसा थोड़ी होती है। उसका फल बहु होता है, पाप प्रकृति भी यंत्र हैं | विना इरादा यदि हिंसा बहुत कदाचित होती है। उदयकाल में अल्प वंसे फल थोड़ा सा देती है ।। ५५ ।। जीवोंके परिणामोंकी यह अति विचित्रता है जान |
अत: मुख्य परिणाम जीवकं व्यक्त रूप तुम पहिचान |
अन्य अर्थ - देखो ! परिणामोंकी विचिता कि [ एकरूप अहिंसा काले अनरूपं फलं दात | किसी जोनसे थोड़ी सी हिसा होनेपर उसका फल या दंड उसे उदयकाल में बहुत मिलता है अर्थात् जिसका इरादा अनेक जीवोंको जानसे मार डालनेका हो लेकिन कारणवश यदि वह उन सबको न मार सके सिर्फ एकाध ही मारा जाय, उसका फल मारने वालेको बहुतों के मार डालनेका ही फल मिलेगा ऐसा समझना और [ अन्यस्य महाहिंला परियाकै स्वल्पफला भवति ] किसी जीवसे मारने का इरादा न होने पर कदाचित् व्यापार आदि करते समय किसो जीवका प्राणान्त । मरण या हिंसा) हो जाय तो भी उदयकाल में उसकी थोड़ा सा ही फल या दंड मिलेगा, कारण कि इरादा खोटा ( मारनेका) नहीं था। यह सब खेल परिणामोंका है, दूसरेका नहीं ऐसा, निश्चय
जानना ।। ५२ ।।
भावार्थ-लोकाचार में ( व्यवहारमें ) क्रियाकांडकी मुख्यता मानी जाती है, उसके आधार पर हिंसा अहिंसाका विचार किया जाता है तथा अपराधी-निरपराधी सिद्ध होता है व लौकिक दंड भी मिलता है किन्तु भावाचार में ( अन्तरंग मानसिक विचारधारा में ) मनके आधार पर हिंसा अहिंसाका विचार करना पड़ता है अर्थात् मनोवृत्ति पर सब दारोमदार रहता है, उसीके अनुसार पारलौकिक दंड भी मिलता है लोकाचार उसका कोई घनिष्ट सम्बन्ध नहीं रहता, साधारण निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध रहता है । अतएव पेश्वर मानसिक संग्रम ( नियंत्रण ) होना चाहिये, उसके होने पर बाह्य संयम पालना सब सरल व सुलभ है। अर्थात् उसके पालने में कोई कठिनाई . मालूम नहीं पड़ती, वह आसानीसे पाला जा सकता है । ऐसा होनेसे अन्तरंग ( निश्चयभाव रूप ) और बहिरंग ( व्यवहार द्रव्यरूप ) दोनों प्रकारकी हिंसा नहीं होती ( बन्द हो जाती है ) । फलतः वह जीव निरपराध (अहिंसक ) होकर संसार समुद्रसे पार हो जाता है अतः यही मार्ग श्रेष्ठ अनुकरणीय है। इसके विपरीत जो जीब सिर्फ बाह्याचारको हो मुख्यता देकर उसीके करने में ब चित्त रहते हैं अन्तरंग आचार विचार पर ( मनोवृत्ति पर ध्यान नहीं देते वे बिना नोव के मकान जैसे पतित हो जाते हैं याने उनका बाह्यावरण बिगड़ जाता है - वे भ्रष्ट हो जाते हैं, जिससे लोकदंड भी उन्हें मिलता है, परलोक दंड तो मिलता ही है। अतएव यह मार्ग श्रेष्ठ नहीं है, यह गिरतीका मार्ग है जिससे ऊपर नहीं चढ़ सकते । कर्मबंध और उसके फलमें विशेषता होतेका कारण ( निदान ) जीवके अच्छे व बुरे ( शुभ व अशुभ परिणाम हो मुख्य समझना चाहिये
किम्बहुना' । १. उक्तं च----