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________________ १७५ বাহির महि व्यवहार छोड़ना वह है, निश्चयरूप न वह माना। श्रममें पड़कर भूल यथारथ नकली स्वांग स्वयं धरना ॥ ५५ ।। अन्वय अर्थ- यः ] जो कोई अज्ञानी मुमुक्षजीव [ निश्चयन निश्चयमबुभ्यमानः ] निश्चयसे ( यथार्थत: ) निश्चयके स्वरूपको तो जानता नहीं, । अनभिज्ञ है) परन्तु [ तमेव संश्रयते ] निश्चय में ही रुचि रखता है और उसीके पालनेकी प्रतिज्ञा भी करता है [ सः ] बह जीव निश्चयके स्वरूप को विना समझे [ बहिः करant नाशयति ] बाहिर इन्द्रियों के व्यापार ( क्रियाकांड...इन्द्रिय संयम पालनेरूप ) को व्यवहार जानकर छोड़ देता है, ( बन्द कर देता है और निश्चयधारी अपने को मान लेता है। ऐसा जीव | करणालसो बाल:...मनति ] इन्द्रिय व्यापार रहित महा प्रमादी (आलसी ) और अज्ञानी ( मूर्ख ) माना जाता या समझा जाता है.--मोक्षमार्गी नहीं हो सकता 11 ५०॥ भावार्थ---जिस अज्ञानी जोक्ने ऐसो रुचि की, कि निश्चय उपाय या ग्राह्य है तथा व्यवहार हेय ( अमाप त्याज्य } है, क्योंकि निश्चयके आलम्बनमे ही मोक्ष होता है, व्यवहारके आलम्बनी मोक्ष नहीं होता, ऐसी धारणा या प्रतिज्ञा मात्र करके, तथा निन्चय और व्यवहारके स्वरूपका वास्तविक स्वयं ज्ञान हुए बिना हो, ग्वाला दुसरोंक केही सुनने मात्रसे. ऐसा मानता है कि मेरा आत्मा निश्चयसे शुद्ध है....मुक्त है इत्यादि । फलतः ऐसी स्थितिमें हिमादिको छोड़ना-यमादिको धारण करना, पापसे डरमा, कष्ट सहन करना अन्यथा सिद्ध है (निरर्थक है) बे कोई साधक बाधक नहीं है। खाना पीना मौज उड़ाना यही जीवनका कर्तव्य है, सो करते रहना चाहिये, क्योंकि आस्मा तो मुक्त है हो, उसको अमुक्त या बद कोई कर ही नहीं सकता, फिर डर काहेका इत्यादि, एकान्त बह धारण करता है। उसका खंडन निम्न प्रकार आचार्य करते हैं कि-- निश्चय और व्यवहारके स्वरूपका ज्ञान हाए विना ) सब कटपटांग है, मन गढन्त । निराधार ) विचार व कार्य है। देखो निश्चय और व्यवहार दोनों, पदार्थके स्वरूप हैं पदार्थ ( वस्तु) की पर्याय है तथा उनको जानने वाली निश्चय और व्यवहार दो नयें हैं जो ज्ञानके भेद हैं, अर्थात् निश्चय व्यवहार ( झेय ) के जायक दोनों नयें हैं । तदनुसार पेश्तर अर्थात् प्रयोग या उपयोग करने के पूर्व, निश्चय और व्यवहारका स्वरूप जानना अनिवार्य है। क्या निश्चय है, क्या व्यवहार है, इसको भावभासना स्वयं होना दरकार है । आवश्यक है )। तभी इष्टसिद्धि (माध्यसिद्धि ) हो सकती है, अन्यथा नहीं, यह सत्य है। ( १ ) निश्चय, पदार्थ के शुद्धस्वरूपको कहते हैं, जो परसे भिन्न और अपने गुण स्वभावसे सदैव रहता है। उसको यथार्थ जानना निश्चय ज्ञान व निश्चयनय कहलाता है। ऐसा ज्ञाता जीव ही निश्चयज्ञानी तथा निश्चयावलम्बी हो सकता है. दूसरा कोई अज्ञानी वैसा नहीं हो सकता। . १. पदार्थ ( वस्तु ) में एकत्त्वत्रिभक्त रूपला व स्वाधीनताका रहना निश्चयका रूप है तया शुद्धता है। पदार्थ में परके साथ संयोग रूपताका गहना व पराधीनताका होना व्यवहारका रूप है तथा अशुद्धता है।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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