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________________ হ্রাথমিক্স हैं, धनी गरीबोंसे घृणा करते हैं इत्यादि बुराइयाँ नहीं छूटती अतएव बह पाखण्ड ढोंग या वेष समझा जाता है 'इत्यादि। अन्यत्र निविचिकित्सिताका अर्थ निर्दयतारहित किया है अथवा दधासहित होना निर्विचिकित्सिता . कहलाता है । विचिकित्सिता - निर्दयता, उससे रहित इति । नोट---व्यवहार दृष्टि या मषिके समय भी यदि निश्चयदृष्टि ( अन्तर्दृष्टि ) रहे या रखो जाय तो वह सम्यक व्यवहार होनेसे कथंचित उपादेय होता है अर्थात् मन्द रागादिकके उदयमें वेसे भाव व शारीरिक क्रिया हो सकती है, परन्तुगतो कि हेप जानता हुआ { अरुचिपूर्वक) यदि करे तो दोषावायक नहीं होता। मिथ्यादष्टि नहीं हो जाता) कारण कि वह विवशता ( मजबरी ) की अवस्था होनेसे चिरस्थायी नहीं होती, सदैव अरुचिरूप रहती है क्योंकि पर होने के कारण एकत्त्व विभक्त दृष्टिवाला उसमें रुचि प्रोति उपादेयता कभी स्थायी नहीं कर सकता यह निश्चित है। ऐसा जीव ( सम्यग्दृष्टि ) ही यथार्थमें निर्विचिकित्सित अङ्ग पाल सकता है जो जिनवाणोंमें श्रद्धा रखता है कि विकार या विभाव सब पर हैं, अतएव उनको मत अपनाओ अर्थात् अपनी आत्मामें उन्हें यथासम्भव स्थान मत देओसदेव पृथक् रहो, बाह्य वस्तुएँ सो । दृश्यमान पृथक हैं ही ऐसा समझना चाहिये, परके संयोगसे कोई अपवित्र या पवित्र नहीं होता यह वस्तुव्यवस्था ( स्वभाव ) है किम्बहुना । शेष सब भ्रम है इति । संयोगी पर्यायमें अनादि कालसे निश्चय और व्यवहारनयमें परस्पर सापेक्षता अर्थात् कथंचित् निमित्तनैमित्तिक' सम्बन्धाता चली आती है, तब परस्पर सर्वथा ( अत्यन्ताभावरूप) .... .aasaan.. . . .... . marathimant r . . . . . " १. स्वभावतोऽशुत्रों काये रत्नत्रयपश्चित्रिते. निर्जुगुप्सा मुणप्रीतिमता निविचिकित्सिता ॥१३॥ रत्न श्रा अर्थ:--स्वभावसे अपबित्र ( नवद्वार मलबाही ) किन्तु रत्नत्रय ( सम्यग्दर्शनादित्रय ) के संयोगये पवित्र ( उपचरित ) ऐसे शरीर में सानि नहीं करना, निविचिकित्सित अंग कहलाता है यह व्यवहारनयका लक्षण है क्योंकि पराश्रित ( शरीराश्रित ) है अतः उपचार है। निश्चयसे आत्मामें रागादिक (ग्लानि वगैरह) का न करना मिविचिकित्सित अंग है यह स्वाश्रित है। छह्वालामें 'मुनि तन मलिन म देख धिनावे' यह भी व्यवहारका कथन है अस्तु । २. मूलाचार अन्य गाथा ५७५८ पंचाचार अधिकार। छह तव्हा सीदुण्हा दंसमसयमचेलभाको य। अरविरदिइस्थिचरियाणिसीधियासेन्जअकोसो 1॥५॥ बधजायणं अलाहो रोगतशफासजल्लसक्कारो। तह चे पणपरिसह, अपणाणमर्दसणं खमणं ।।५८॥ उक २२ परीषहौंको लानिदेष संक्लेशता रहित परिणामोंसे जीतना सहन करना, धर्म या चारित्र है, उससे सम्यग्दर्शन मुण निर्मलविचिकित्सारहित होता है यह तात्पर्य है। बृहत् हैन्यसंग्रह गाथा ४१ 'जीवादीसदहणं सम्मत्तं रूवमप्पणं तं तु । दुरभिनिवेसविमुक्क गाणं सम्म खु होदि सघि जम्हि ॥४१॥ . ... .. ..... Prabinalner-nu memorningporn1000---------
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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