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________________ 114 पुरुषार्थसिद्धधुपाप मित्रम रूपसे सीमा भीतर सीमा व्रतकी करनेका । प्रतिदिन ऐसा करते-करते पूर्ण शुद्ध हो जाने का १६५|| . अन्वय अर्थ- आचार्य कहते हैं कि नती पुरुषोंका कर्तव्य है कि वे [ पुनरपि पूर्वकृतार्थ व तात्कालिकी निजा शनि समीक्ष्य ] बार-बार अपनी पूर्वकी { प्रारंभ की ) तथा वर्तमानकी अपनी शक्ति ( योग्यता का निरीक्षण या मिलान ( संतलम ! करके । प्रतिदिन सीमन्यमलामीमा कसंख्या भवति ] प्रतिदिन नियमरूपसे मर्यादाके भीतर मर्यादा व्रतकी भोगीपभोगके त्यागनेकी करे या करना चाहिये, यह कर्त्तव्य अनिवार्य है ॥१६५।। भावार्थ-सिंहावलोकनन्यायसे व्रतीको अपने अतों-नियमोंकी खतौनी बार-बार अवश्य ही करना चाहिये, जिसको अनुप्रेक्षा भी कहते हैं। उससे कभी शिथिलता नहीं आने पाती, सतर्कता रहती है । यह तो मंत्रके समान जगानेकी विधि है। फलत: विवेकी दूरदर्शी पुरुष ऐसा करके स्वयं अपना कर्तव्य पूरा करते हैं। उनकी यह स्वात्मष्टि स्वयं उन्हें ही लाभ पहुँचाती है और दूसरे लोगोंको आदर्श उपस्थित करती है, जिससे वे भी अनुकरण कर लाभ उठाते हैं। इस प्रकार संतानपरंपरा धर्म और व्रतकी चली जाती है, क्योंकि धर्म, धर्मात्माओंके बिना नहीं चलता यह नियम है। श्रावकके लिये सत्तरह-सत्तरह नियमोंका पालन करना प्रतिदिन बतलाया है। भोजने परसे पाने कुंकुमादि विलेपने, पुप्पताम्बूलगीतेषु नुस्यादौ प्रापर्यके 4 || स्नामभूषणयस्त्रादौ वाहने शयनासने, सचितवस्तुसंख्यादौ प्रमाणं भज प्रत्यहं ॥२॥ अS....भोजनका, छह रसोंके त्यागका, जलादि पीनेका, इअफुलेल या टीका आदि लगानेका, माला पहिरनेका, पान स्वामेका, गीतगाने या सुननेका, मृत्य देखने या करनेका, ब्रह्मचर्य पालनेका, स्नान करनेका, गहमा पहिरनेका, वस्त्र पहिरनेका, सवारीका, सोनेका, बैठनेका, सचित्त वस्तुके त्याग करने का प्रमाण ( सीमा ) प्रतिदिन करना चाहिये यह कर्तव्य है। यथाशक्ति कार्य करते रहनेसे वृद्धि ही ( उन्नति ही) होती है, अवनलि ( हानि ) नहीं होती यह नियम है, इसका ध्यान हमेशा रखना चाहिये ॥१६५॥ नियमका अर्थ सीमित समय तक है। श्रावकके १७ यमव्रत ( जीवन पर्यन्त ) कुगुरु कुदेव कुवृषकी सेवा, अनथदंड अधमय व्यापार । शत मांस मधु वेश्या चोरी परत्रिय हिंसाधान शिकार ।। श्रग्रहिंसा स्थूल सूर अरु दिन छान्यो जल निशि आहार । ये सब अनर्थ जगमाही, यावजीब करी परिहार ।। श्रावकका यह कर्तव्य है कि वह यमरूप जोवनपर्यंतको उपर्युक्त वस्तुओंका दृढ़तासे त्याग कर देव, तभी उसके जीवनको सफलता है अन्यथा नहीं। तथा इसके पहिले कहे हुए १७ कार्यों का यथावसर नियमरूपसे ( मर्यादा सहित ) त्याग करे अर्थात् कम-से-कम पर्वके दिनोंमें या अच्छे ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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