SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यग्दर्शनाधिकार आगम ( परमागम ) के तीन भेद (१) गणधर सूत्ररूप आगम-वह है जिसकी रचना चार ज्ञानके धारो गणधर द्वादशांगरूप करते हैं । तथा जो अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य दो रूप होती हैं। वह सब शब्दरूप या द्रव्यश्रुतरूप 'है। संक्षेप-रचनाका नाम सूत्र है । १. (२) प्रत्येकबुद्धसूत्ररूप आगम-जो स्वयंबुद्ध गणधरसे कमती ज्ञान बाले बड़े-बड़े तपस्वी ऋषि महर्षियोंके द्वारा संक्षेप-शास्त्र बनाए जाते हैं, उन्हें प्रत्येकबुद्धसूत्र कहते हैं । ३३ (३) अभिनदशपूर्वरूप आगम-जो शास्त्र अभिन्न दशपूर्वके ज्ञाता आचार्योंके द्वारा बनाये या रखे जाते हैं, उनको अभिन्नदपूर्वं सूत्र कहते हैं । उनके नाम वगैरह शास्त्रोंमें दिये गये हैं वहाँ उन्हें देख लेना | अथवा आगमके तीन भेद (१) शब्दागम ( अर्थागम (३) ज्ञानागम । यथा- (१) शब्दागम केवलोकी जो ध्यान या शब्द निकलते हैं, उसको शब्दागम कहते हैं । वह अक्षररूप ( अकारादि स्पष्ट अक्षर सहित ) और अनक्षररूप ( स्पष्ट अक्षर रहित गर्जनात्मक या घरघराहट रूप ) निकलती है 1 अथवा निकलते समय अक्षर रहित और सुनते समय अक्षर सहित समृदायरूप 'ओम्' वीजाक्षरकी तरह समुदायरूप, जिसमें सब भाषाओं के बीज भरे हुए हैं ऐसी fafe भाषा या ध्वनिरूप वह है । इसीका नाम निरक्षरी ध्वनि व साक्षरी ध्वनि है ऐसा खुलासा समझना चाहिए। सामर्थ्य नहीं है। स्aादरूप उपदेशको समझनेवाला स्वाहादी भेदज्ञानों सम्यग्दृष्टि जीव ही जिनवाणीका यथार्थ ज्ञाता होता है । दूसरा अर्थ--- अर्थ-farerit (नि) व्यवहाररूप ही होती है अर्थात् जिनेन्द्रदेवका उपदेश माने ज्ञानगत tant narai की सहायताये होता है यह पति searer सद्ध होता है। तथापि उस व्यवहाररूप वाणी ( उपदेश ) से जो जीव निश्चयको समक्ष लेते हैं वे सम्यग्ज्ञानी होकर सच्चे सुखको प्राप्त करते हैं एवं कर्ममको न कर देते हैं अर्थात् संसारको त्यागकर मोक्षको चले जाते हैं, यह ता है ||६|| इस प्रकार व्यवहारको निश्चयका कारण माना जाता है तथा उसमें निमित्तता पाई जाती है। वास्तव में तो अभिन्न प्रदेशी व्यवहार ही निश्चयका कारण होता है, ऐसा समझना चाहिये। विशेष --- यहाँ पर कार्यको अपेक्षासे जिनवाणीमें निश्चय और व्यवहार दो भेद किये गये हैं, कारणको arrate नहीं बनते, ऐसा समझना चाहिये। इसका भावार्थ यह है कि स्वयं व्यवहाररूप जिनवाणी बार्थ (सत्य) तत्व ( वस्तुस्वरूप ) का कथन ( वर्णन ) करती है ( वह बागीका कार्य है ) सब उसको निश्चय वाणी कहते हैं और जब वही वाणी अंगुतार्थ (असत्य) का कथन करती है तब उसको राणी कहते हैं, यह भेद समझना चाहिये ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy