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________________ afterwa * या दुःख देता है वह स्वयं अधर्म (पाप) करता है क्योंकि उसके क्रूर निर्दयो परिणाम ( भाव ) होनेसे उसके ही भावप्राणोंका घात होता है जो अधर्म या हिंसा है- पापबन्धका कारण है। फिर जिस जीवको वह मारता है-उसके परिणामोंमें संक्लेशता आदि विकार होनेसे उसके भी स्वभावका घात होता है तथा पापका बन्ध होता है। अतएव गुरु शिष्य दोनों घाटेमें रहते हैं- दोनों को सुमति नहीं होती, दुर्गति होती है व पुण्यका बन्ध नहीं होता । तब वादीका कथन असत्य सिद्ध होता है जो माननेके लायक नहीं है ( अमान्य है ) । धर्म हमेशा निराकुल और स्वस्थ परिणाम रहने से ही प्राप्त होता है-आकुलता और विकाररूप परिणामोंसे धर्म नहीं होता, यह नियम है। हिंसा में परिणाम निराकुल और स्वस्थ कभी नहीं रह सकते । अतएव हिंसा त्याज्य है इत्यादि । गुरु अपने भावोंका फल कभी भी पा सकता है, उसको ध्यानके समय मार डालने से ही क्या लाभ हो सकता है ? कुछ नहीं । उसने जैसा बन्ध किया होगा वैसा ही फल उसे अवश्य frलेगा किसीके कुछ करनेसे या साधन मिलानेसे दूसरेका अच्छा या बुरा नहीं होता, यह नियम है-वस्तु स्वतन्त्र है । अत: उसके विषय में अन्यथा विकल्प करना मूर्खता है हानिकारक है, frerna है इत्यादि । यद्यपि सम्यग्दृष्टि के उपाय करनेके विकल्प होते हैं और वह उपाय भी करता है किन्तु वह उन्हें निमित्तकारण हो समझता है, वस्तुस्वभावको बदलनेवाला उपादान कारण नहीं समझता. यह श्रद्धा उसके अटल रहती है। उसके चित्तका डुलाना कषायवश होता है जो उसके ससा में है, संयमीपर्याय है । जो नैमिसिक है वह सम्यग्दृष्टिकी विकारो या arrant है जिसे वह हेय समझता है। अतएव सम्यग्दृष्टि ज्यों-का-त्यों समझनेसे भूला हुआ नहीं है और मिथ्यादृष्टि अन्यथा समझनेसे भूला हुआ है यह अन्तर है, किम्बहुना | भोले-भाले farmarate शिथिलाचारी हो जाते हैं और अनेक तरहके विकल्पोंमें पड़कर जीवनको बरबाद कर देते हैं जिससे संसारमें जीवोंका अन्त | समाप्ति ) नहीं हो पाता वे सदैव अक्षय अनन्तको संख्या में मौजूद रहते हैं। कितने हो विवेकशील होकर निकलते भी जाते हैं ! ६ माह ८ समय में ६०८ जीव ) तो भी कितने तो अविवेकी बने ही रहते हैं। यह सब भूलका ही नतीजा ( फल ) है, अस्तु ॥ ८७ ॥ आगे धनादिके लोभी खार ( गेरुआ ) वस्त्रधारी कुगुरुओं का हिंसक उपदेश नहीं मानना चाहिये- उसका खण्डन किया जाता है- धनलवपिपासितानां विनेयविश्वासनाय दर्शयताम् । झटिति घटचकमोक्षं श्रद्धेयं नैव खारपटिकानाम् ||८८|| १. घड़ाके भीतर वन्द चिड़िया की तरह । २. खारुमा अर्थात् मोटा पटरा जैसा रंगीन वस्त्रधारी पाखण्डी गुरु जो मुक्ति या सुखप्राप्तिका लोभ देकर काशी करवट आदि कराते हैं शिष्यों -- भक्तोंको मारकर धनादि हड़प लेते हैं। ऐसे अनेक मतमतान्तर संसार में पाये जाते हैं ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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