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________________ E 那是我 पुरुषार्थसमुपाय पद्म धनके लोलुप धूर्तजनोंके बहकाए जो आते हैं। नाटक टक कर कर के जो निज विश्वास दिलाते हैं | भूल न जाना इन्द्रजाल में मोक्ष नहीं उनसे मिलता । घटके फूटे चिड़िया सम क्या प्राणघात से संभवता ? ॥८८॥ अन्वय अर्थ- आचार्य कहते हैं कि | नवविवासितानां विनेयविश्वानाथ झटिति घटक मदर्शयत खाटिकामां नैव श्रयं ] खारपट ( वस्त्र ) मतवाले घूसकी धूर्तता ( छल कपटता ) जो कि वे शिष्यों अर्थात् भोले अज्ञानी भक्तोंको विश्वास दिलाने ( उत्पन्न करने ) के लिये करते हैं अर्थात् एक चिड़ियाको पड़ा बन्द करके सबके देख इन्द्रजाल विसे गायब कर देते हैं और कहते हैं कि देखो हमने उसको जल्दी मोक्ष पहुँचा दिया है ताकि वह बहुत काल तक दुःखी न रहे दत्यादि । उसका खण्डन आचार्य करते हैं कि यह सब झूठ है अतः उस धूर्तता ( छलविद्या ) पर विश्वास या श्रद्धान कभी नहीं करना चाहिये ||८|| भावार्थ- संसार मायाचार व छल-कपटका घर ( केन्द्र ) है, उसमें तरह-तरह के जीव भरे हुए हैं और हर तरहकी विद्याओं ( कलाथों) से अपनी जीविका ( गुजर-बसर ) चलाते हैं । जैसे नाटकगृह ( नाट्यशाला ) में तरह-तरह के स्वांग किये जाते हैं और काम चलाया जाता है । उसी तरह कोई धर्मका झूठा लोभ देकर कोई मोक्षका उपाय बताकर या शरीर सहित मोक्ष भेजकर कोई धन प्राप्सिका कोई पुत्र-पौत्रादिका कोई इष्टसिद्धिका अर्थात् मनवांछित फलकी प्राप्तिका, कोई दुःखसे छूटने का या दुःखमें पड़ जानेका लोभ, लालच बताकर छल या धूर्तता ठगते या व्यामोहित करते रहते हैं। जैसे कि किसी समय में ऐसा होता था कि धर्मके नाममर खुला rai होता था, पशुमेध ( हवन यज्ञ ) नरमेध आदि भारी संख्या में जहाँ तहाँ व धर्मस्थानों में किये जाते थे धूर्त विषयकषायी पण्डा पुजारी भोले बुद्धिहीन जीवोंको धोखा देकर दिलाशा देकर ) मार डालते थे व उनका धन लूट लेते थे व अस्मत् नष्ट कर देते थे, यह घोर अन्याय ( पातक अत्याचार ) होता था। भक्तोंको विश्वास करानेके लिए जमीनमें गुप्त स्प्रिंगवाला गहरा गड्ढा खोद दिया जाता था, सुरंगको तरह और जमीनपर भोले जीवोंको बैठालकर, उनसे घन जेवर आदि लेकर व संकल्प कराकर । ऊपरसे मण्डप या परदा लगाकर या लकड़ियों का ढेर लगाकर छपनकीसे पत्थर सरका दिया जाता था जिससे वह भक्त महरे गड्ढे में जा गिरता था व व्यर्थ ही मर जाता था। पत्थर ज्यों-का-त्यों जम जाता था पदत्रात् परदा खोलकर कह दिया जाता था कि देखो मन्त्रविद्यासे हमने उसे मोक्ष पहुँचा दिया है या वह धुआँके गुब्बारेके साथ कपर मोक्ष चला जा रहा है इत्यादि विडम्बना करके धर्मके नाम पर जुर्म किया जाता था-- भोले लोग चंगुल में फस जाते थे, बड़ा गरम बजार था, सतीप्रथा भी चालू थी, अस्तु । अब प्रायः खुले रूपमें वह सब बन्द हो गया है । फलतः घूर्ती पापियोके झूठे व अजरजकारी हथखण्डों ( दृश्यों ) व उपदेशों पर विश्वास नहीं करना चाहिए- यथा सम्भव परीक्षा करना अनिवार्य है । जीवन धन
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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