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যার্থবিৰুৱাৰ अन्वय अर्थ----आचार्य कहते हैं कि [ अपि मदनोद्रेकात् यत् किंचित् अनंगरमणादि क्रियते ] मैथुनके सिवाय तीव्र वेदके उदय ( वेग ) में जो कुछ अभंग क्रीड़ा की जाती है। अर्थात् प्राकृतिक काम सेवनके अंगोंको छोड़कर अन्य अंगों द्वारा ( हस्तमैथुन-गुदामैथुन-पशुमैथुन आदि ) मैथुन या कामसेवन किया जाता है। [ सश्रापि रागाद्युत्पत्सितंत्रत्वात हिंसा भवति । उसमें भी रागादिककी अधिकतासे हिंसा ( भावहिंसा ) होतो ही है- अवश्य होती है। अतएव वह भी वर्जनीय है, पापका कारण होने से । जहाँ रागादिक रूप प्रमाद है वहाँ हिंसा अनिवार्य है ।।१०।।
भावार्थ... शशेर भरमें जहाँ तहाँ जीवराशि पाई जाती है किन्तु गुप्त स्थानों में अधिक पाई जाती है, अत: द्रव्य हिंसाको बचाने के लिए उन स्थानोंका मैथुन कर्म छुड़ाया जाता है और उसके साथ-साथ अन्य स्थानोंका भी भावहिंसा बचानेके लिए त्याग कराया जाता है अर्थात् द्रव्य और भाव दोनों हिंसाओंके छूटने पर ही 'अहिंसा धर्म का पालनेवाला जीव हो सकता है और तब मोक्ष जा सकता है इत्यादि, किम्बहुना ।
इसी तरह श्रावकके एक देश संयम या व्रत पल सकता है अर्थात् अप्रयोजनभूत् कुशीलके छोड़नेसे एवं प्रयोजनभूतके सेवन करनेसे कथंचित् अणुव्रती बन सकता है। अर्थात् जितने रागादिक बट जायेंगे व हिंसा कम हो जायगी, उतना ही वती वह हो जायगा और अभ्यास करते करते वह सबका त्यागकर पूर्णवती बन जायगा, यह लाभ है। इसी में स्वदारसंतोष-परस्त्री त्याग आदि गर्भित हैं पश्चात् पूर्ण ब्रह्मचारी या ब्रह्मवती होता है। चरणानुयोगका यह क्रम है, जो विलम्बसे होता है, उसका नाम अन्तरंग त्याग है। अन्तरंग परिग्रह सब कपाय या विकाररूप है। साधक सभी बातोंका ध्यान रखता है और रखना चाहिये--- भूलना उसका स्वभाव नहीं हैस्मरण रखना उसका स्वभाव है अस्तु । स्मरण करके श्रुटियोंको निकालना उसका कर्तव्य है किम्बहुना । वह हमेशा सावधानी रखता है कर्मधाराके समय भी बह आत्माको सतर्क करता रहता है या बुराईसे बचता रहता है अरुचि करवाता है॥१०९।। आचार्य श्रावकके लिए चौथे कुशीलपापके त्यागनेका क्रम बतलाते हैं ।
एकवेश ब्रह्मचर्यको पालनेके लिए ये निजकलेत्रमात्र परिहत्तुं शक्नुवन्ति न हि मोहाद । निःशेषशेषयोषिभिषेवणं न तैरपि कार्यम् ॥११०॥
१. स्त्री-निजपत्नी। २. त्याग न करना। ३. चारित्रमोहका उदय । ४. सम्पूर्ण स्त्रीमात्र। ५. स्त्रियाएँ । उक्तं च--
नतु परदारान गमछति न परान् गमयति न पापभीर्यत् । सा परदारमिवृत्तिः स्वदारसन्तोषनामानि ।।५।।
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