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________________ i : : : T पुरुषार्थसिद्धपुचाथं J इसका मतलब यह है कि मूलमें ( जिनोपदेश या कथनमें ) अटूट श्रद्धा रखते हुए अर्थात् उसमें शंका या संशय न करते हुए जब अपनी अज्ञानता या असमर्थता के कारणसे किसी (सूक्ष्मादि ) तत्व या पदार्थ में स्वयं कोई शंका अर्थात् जिज्ञासा ( जाननेको इच्छा ) भ्रम या संशय उत्पन्न हो जाता है या हो जाय, उसको दूर करनेके लिए अपनी खुद की त्रुटि समझते हुए जब कुछ विशेष ज्ञानियोंसे पूछता है या प्रश्न या शंका करता है तब उसका सम्यग्दर्शन पूर्वोक अटल श्रद्धा जिनवाणी में तो खंडित नहीं होता किन्तु शुभ राग - जिज्ञासा रूप अवदंय होता है, जिससे निर्मल वीतरागता रूप सम्यग्दर्शन, मलीन अर्थात् रागादिसहित हो जाता है, अतएव वह दोष या afaचार है लेकिन अनाचार या मिथ्यात्व नहीं है, यह वास्तविक भेद है । अनाचार या मिध्यात्व मूल श्रद्धा हो ( जिनवाणी के प्रति ) नष्ट हो जाती है किम्बहुना मूल श्रद्धा हर समय उपादेय और ग्राह्य है- सम्यग्दृष्टिका वह प्राण है ( अस्तित्त्व रूप जीवन है । इति । चाहे वह निश्चय सम्यग्दृष्टि हो या व्यवहार सम्यग्दृष्टि हो, सभीको मूल सात तत्त्वों में या वस्तु मूलस्वरूप ( एकत्व विभक्त ) में अटल श्रद्धा रहना चाहिये । अस्तु । .ܪ froei ( १ ) यह कि जिस तरह पतंग की डोर ( रस्सी ) हाथमें रहनेसे पतंग गुमतो नहीं है न कोई हानि होती है, उसी तरह सम्यग्दर्शन ( जिनवचमें दृढ़ श्रद्धान ) के साथ रहते हुए जीव ( आत्मा ) भ्रष्ट या बरबाद अर्थात् मिथ्यादृष्टि अनन्त संसारी नहीं होता-- वह भव्य संसारसे पार जल्दी या देर-अवेरमें अवश्य होता है । बीच में यदि क्षणिक रागादिरूप विकारीभावसे वह कथंचित् बिगड़ भी जाय तो भी वह अपना बिगड़ेका सुधार कर लेता है अर्थात् मलसीको सुधार कर निर्दोष बन जाता है और पश्चात् मोक्ष चला जाता, सिर्फ सम्यग्दर्शन सुरक्षित रहना चाहिए ( नष्ट होकर मिथ्यात्व नहीं हो जाना चाहिए, यह शर्त है | ) (२) क्षणिक राग और स्थायी रागमें बड़ा अन्तर है । स्थायी राम मिथ्यादृष्टिके होता है, जो रागादि परको अपना मानता है व उसको दूर नहीं करना चाहता है अर्थात् उसको त्यागता नहीं है इत्यादि उसीमें तन्मय रहता है। और क्षणिक राग, सम्यग्दृष्टिके होता है, जो रागादिको भिन्न समझकर उनसे पृथक होनेका या उनको पृथक करनेका प्रयत्न ( पुरुषार्थ ) करता है । वह रोग मिटाने को दवाई की तरह परद्रव्य में क्षणिक रामादि करता है वह भी refa पूर्वक जैसे काँटेको निकालने के लिए दूसरे काँटेसे क्षणिक ( कुछ समयको ) राग करता है । फिर सब छोड़ देता है इत्यादि । जबतक इच्छा या कषाय पूर्ण नहीं होती तब तक ही वह अपवादमार्गको १. पंचास्तिकायें-- गाया नं० १३६ 'अयं हि ( प्रशस्तरागः ) उपरितनभूमिकायाम लज्जास्पदस्यास्थानरागनिषेधार्थ, तीव्ररागज्वरविमोशर्थं वा कदाचिद् ज्ञानिनोऽपि भवतीति ।' लामो सम्यग्दृष्टि जीवको जबतक ऊपरके गुणस्थान अर्थात् १० के बाद के गुणस्थान प्राप्त नहीं हो इसका अर्थ यह है कि जाते अथवा पूर्ण वीतरागी वह नहीं बन जाता तबतक अशुभ रागसे बचने के लिए ( पाप अन्धसे रक्षा करनेके लिए एवं तीन राग ज्वरको शान्त करनेके लिए ) यह (सगदृष्टि ) ज्ञानी भी अरुचिपूर्वक 412
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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