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________________ १. सम्यग्दर्शनाधिकार saurfer a fufर्थकनका स्वरूप व भेद ( १ ) जिस नयका उद्देश्य या मुख्य प्रयोजन द्रव्यकी शुद्धताको बताना या ज्ञान कराना हो अर्थात् जो न सिर्फ द्रव्यके शुद्ध स्वरूपको बतलावे उसको द्रव्याथिक कहते हैं । जैसेकि संयोग पर्याय रहित सर्वथा शुद्ध सिद्ध परमात्मा के स्वरूपका ज्ञान कराना, क्योंकि वे सर्वथा शुद्ध अर्थात् कार्यकारणभावसे रहित पूर्ण शुद्ध जीव द्रव्यरूप हैं । संसारदशामें जीवद्रव्य कार्यकारणरूप होता है तथापि आत्मद्रव्य के साथ उनका तादात्म्य सम्बन्ध नहीं होता वह आत्मद्रव्य परसे भिन्नतारूप शुद्ध रहता ही है, अस्तु । द्रव्यार्थिकमय ३ तीन भेद ( उपनयरूप ) माने गये हैं । यथा १) गम ( २ ) संग्रह ( व्यवहार । तोनोंके लक्षण निम्नप्रकार हैं। 安道 ( १ ) जो नय दो पदार्थोंमेंसे एकको मुख्य और दूसरेको गौण करके भेदरूप या अमेदरूप बतलावे ( जनावे ) उसको गमनय कहते हैं। अथवा कार्यके संकल्पमात्रको बतानेवाला नय ( ज्ञान ) नैगमन कहलाता है । जैसे कि रसोई बनाने के संकल्पमात्र करते समय किसीके पूछनेपर fear कर रहे हो ? जवाब देना कि रसोई बना रहे हैं इत्यादि यहाँ कार्य पर्याय द्रव्यका आरोप है। (२) जो नय, जातिभेद ( विरोध न करके समुदायरूपसे द्रव्य ( पदार्थ ) को ग्रहण करे या बताने उसको संग्रहनय क है। जैसे वृक्षोंके समूहको वन कहना या जानना, का भेद न कर जीवमात्र सबको बराबर मानना 'यह जोवराशि है इत्यादि । ( ३ ) जो नय, अभेदसे मेद करे अथवा संग्रहनय द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थ से पृथक.पृथक् बतावे या करें, उसको व्यवहारना कहते हैं । जैसे वनमेंसे, यह नीम है, यह सागोन है, यह आम है इत्यादि । या जीवराशिमेंसे, यह त्रस है, यह स्थावर है, यह एकेन्द्री है, यह दो इन्द्रिय है, यह देव है, यह मनुष्य है इत्यादि । पर्यायार्थिकनका स्वरूप व भेद (२) जिस नयका उद्देश्य द्रव्यको पर्यायमात्रको ( संयोगोपयको ) ग्रहण करने या anter हो अथवा जो नय, मुख्यतासे पर्यायको हो बतावे या कहे, उसको पर्यायार्थिकन कहते हैं। उसके चार भेद हैं यथा ( १ ) ऋजुसूत्र ( २ ) शब्द ( ३ ) समभिरूड ( ४ ) एवंभूत । 1 १. ण कुदोनिवि उपणो जम्हा क ग ते सो सिद्धो । उपादि ण किचि वि कारणमवि तेण ण य होदि ॥ ३६॥ पञ्चास्तिकाय अर्थ - सिद्ध परमात्मा किसीसे अर्थात् कर्मक्षयद्वारा उत्पन्न नहीं होते किन्तु स्वयं स्वोपादानसे होते हैं अतएव कार्यरूप नहीं है तथा किसको अर्थात् स्वकीय संसार को तथा परको उत्पन्न नहीं करते अतएव कारणरूप भी नहीं है किन्तु ज्ञातादृष्टा मात्र शुद्ध द्रव्यरूप हैं इति ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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