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________________ परिग्रहपरिमाणाणुषस २८९ जन्मजन्मान्तर तक साथ जाता है। फलतः रागका संस्कार ल डालकर सम्यग्दष्टि वैराग्यका संस्कार अपने आत्मामें निरन्तर डालता है अर्थात् परकी ओरसे हटाकर अपना ज्ञानोपयोग अपनी मोर लाता है और उसी में स्थिर करता है. जिसमें नम एकाग्रता द्वारा निराकुल होकर अपने शुद्ध स्वरूपका अनुभव करता है अथवा स्वाद लेता है, तब महान सुख उत्पन्न होता है। उस आस्तिक सुनके सामने वेषयिक सुख तुच्छ मालूम होते हैं तथा उस समय वह अपने को कृतकृत्य मानता है। ऐसी स्थिति में अन्तरंग परिग्रह छुटाने के लिये निश्चयरूप अर्थात् बोतगमता रूप 'मार्दव-शौच' धर्मकी भावना कर्तव्य है, क्योंकि रागद्वेषादिरूप अन्तरंग परिग्रहका विनाश उसके विपक्षी वैराग्यसे ही होना सम्भव हैं। वह भावना संक्षेपमें कहा जाय तो एकाग्रता' करना है। अर्थात् उपयोग (चित्त )के हटनेपर ( चंचल होनेपर ) पुरुषार्थ करके पुनः पुनः उसको आत्मस्वरूपमें लगाना चाहिये, इत्यादि । तभी भावनाको सार्थकता मानी जा सकती है। किम्बहुना ॥ १२६ ।। आगे आचार्य यह बताते हैं कि अन्तरंग परिग्रहका त्याग करना तो मुख्य है हो किन्तु बाह्य परिग्नहका त्याग करना भी अनिवार्य है, वह उपेक्षणीय नहीं है अपितु अपेक्षणीय है। बहिरंगादपि संगाधस्मात् प्रभवत्यसंयमोऽनुचितः । परिवर्जयेदशेष तमचित्त वा सचिन वा ॥१२७॥ पथ बाय परिग्रह वर्जनीय है-उससे होत असंयम है। बह स्वभाव नहिं जीव वयकाच्यार्थ कलंक लगाता है । भेद अनेकों उसके हैं पर, मुख्यभेद दो होते हैं। एक अचित्त नाम है दूजा-माम सचिस बताते हैं ॥१२७।। अन्यय अर्थ..--आचार्य कहते हैं कि [ यस्मात बहिरंगादपि संगात् अनुचित: असंयमः प्रभपति ] जबकि बहिरंग परिग्रहके निमित्तसे भी अनुचित असंयम उत्पन्न होता है इसलिये [ तमलिक धा मचित्तं परिवर्जयेत् ] उस अचित्त व सचित्त ( पूर्वोक्त ) दो प्रकारके बाह्य परिग्रहका भी त्याग करना अनिवार्य है। क्योंकि उससे [ असुचितः असंयमः प्रभवति ] अनुचित असंयम उत्पन्न होता है अर्थात् उसके निमित्तसे व्यर्थ हो ( आनुषंगिक ) असंयमभाव प्रकट होता है । अन्तरंग परिग्रहका त्याग हो जानेपर बाह्यपरिग्रहका रखना या रहना बेकार है-निष्प्रयोजन है { फालतू है ) ||१२७।। भावार्थ....बाह्यवस्तुओंका ग्रहण अर्थात् परिग्रह ( संग्रह ) अन्तरंग परिग्रहसे ही किया जाता है अर्थात् उसके रहते हो उसका संग्रह व संरक्षण आदि होता है, कारण कि कषायके द्वारा संसारके प्रायः सभी कार्य हुआ करते हैं। तथा उसकी शोभा या कार्यपटुता भी तभीतक रहती . १. हिंसा या पाप होता है 1 अहिंसातत नहीं पलवा इत्यर्थः ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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