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________________ २८८ पुरुषार्थसिद्धयुपाय R शक्तिप्रमाण परिग्रह त्यागे-शेष अन्तरंग बचे हुए। मोक्ष सिद्धि का कारण यह है-साय भावना लिए हुए । है निमिस कारण धे मावन मार्दव शौच आदि जामो । नहि अनर्थ होता है उनसे, चरित रूप गुण पहिचानो। अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ निज शक्त्या शेषाणां सर्वेषामन्तरंग संगामाम् ] अपनो खुदकी शक्तिके अनुसार अर्थात् स्वावलम्बनसे ( परावलम्बमसे नहीं ) शेष बचे हुए ( प्रत्याख्यानादिकवायरूप ) सम्पूर्ण अन्तरंग परिग्रहका भी । परिहारः कर्तव्यः | त्याग करना चाहिये । परन्तु उसके त्याग करने का सच्चा उपाय [ मार्दवशीचादिभावनय! ] मार्दव शौच इत्यादि अन्तरंग निमित्तरूप भावनाएँ हैं अतः उनका अवलम्बन लेना चाहिये ।।१२६।। भावार्थ --अन्तरंग परिग्रहका त्याग अन्तरंग कारणोंसे ही होता है बाह्य कारणोंसे नहीं होता। वे अन्तरंग कारण कषायोंको मन्दता मा अजब होकर ही कामाय प्रकट होते हैं.. उनको भावनाएँ । संस्कार ) कहते हैं । अर्थात् जब कषाएँ मन्द होती हैं अर्थात् साधारण रूपसे उदयमें आती हैं और बिकारीभाव जोरदार नहीं होते--माममात्र उदयमूल होते हैं, तब जीवके अच्छे शुभ विचार होते हैं अर्थात् परिणामों मेंसे कठोरता { तोवता ) निकल जाती है व मृदुता ( मन्दता ) आ जाती है दयाभाव व करुणाभाव होने लगता है-परोपकार आदिकी बुद्धि प्रकट होती है-जिससे मादव धर्म पलता है, मानकपाय घटती है, इत्यादि । तथा लोभ कषायकी मन्दतासे त्यागके भाव होते हैं....उदारता आती है, परिग्रह या आसक्ति छूटती है, जिससे आत्मामें पवित्रता (शोधर्म ) प्रकट होतो है, इत्यादि । उधर धीरे-धारे क्रमशः अन्तरंगमें विकारीभावोंके छूटने ( हटने ) से आत्मशक्ति या आलम्बन प्रकट होता है, बढ़ता है, अर्थात् वीतरागता बढ़ती जाती है. जिसके निमित्तसे अन्तरंगपरिग्रररूप बचे हा विकारीभाव सत्तासे निकलते हैं। भाव निर्जरा होतो है ) इत्यादि अभीष्ट प्रबोजन सिद्ध होता है। विकारको अविकार हटाता है । फलतः भावना भाते-भाते अर्थात् परिग्रह छोड़ने का विचार व प्रयोग करते-करते उसका इतना जबर्दस्त संस्कार पड़ जाता है कि उसीका राज्य हो जाता है और वही स्वतन्त्र रह जाता है । अतएव अच्छे वैराग्यके संस्कार हमेशा डालना चाहिये, संसारसे छूटने की बारंबार भावना ( स्मृति ) करना चाहिये ।। १२६ ॥ नोट-यहाँपर मार्दव शौच आदिको भावना, निश्चयसे मानादिकषायोंसे विरक्त होनेका अहर्निया चित्तवन करना रूप है अर्थात् वैराग्य भावनासे प्रयोजन है उसीसे परिग्रहरूप कर्मोकी निर्जरा होना संभव है। अन्तरंग परिग्रह उसीसे छूट सकता है इत्यादि । वीतराग भावना हो हितकारी है। भावनाका अर्थ बारंबार चिन्तवन करनेका है और प्रयोग एवं पुरुषार्थ करनेका भी है। किसी भी कार्यका बार-बार और सतस प्रयास करनेसे वह सिद्ध और सरल हो जाता है, ऐसा नियम है। उसका कारण संस्कारका पड़ना है, वह संस्कार बड़ा कार्य करता है तथा वह
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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