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________________ परिग्रहपरिमाणात २८७ निहन्धन्ति ] वे दूसरी प्रत्याख्यानावरण कषायके चारों (क्रोध, मान, माया, लोभ ) मेद निश्चय या अनिवार्य रूपसे, देशचारित्रको धातते हैं अर्थात् प्रकट नहीं होने देते। अतएव उनका भी त्याग करना चाहिये, क्योंकि वे भो प्रमादक व हिंसाकारक हैं, देशचारित्रके घातक हैं ।। १२५ ॥ भावार्थ---जितने भी आवरणी कर्म होते हैं वे सभी व्यक्ति ( प्रकाटता) को रोकते हैं, शक्तिका कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकते, शक्ति बराबर मौजूद रहती है। सिर्फ कपरमे आवरण पड़ जाने के कारण बाहिर प्रकट नहीं हो पाती, यह तात्पर्य है । यदि कहीं आवरण शक्तिका धात (नाश ) कर देवे तो वह बस्तु ही नष्ट हो जाब तथा फिर नष्ट हुई शक्ति नवीन उत्पन्न नहीं हो सकती क्योंकि 'असत्का उत्पादन नहीं होता' यह सिद्धान्त हैं, और सत् ( शक्ति ) का विनाश भी नहीं होता, यह अटल नियम है । फलत: इसीलिये आचार्य ने 'निझन्धति' क्रिया लिखी है, जिसका अर्थ रोकना या आचरण करना ( ढकना ) होता है इत्यादि विचारणीय है। अप्रत्याख्यनावरण कषायका उदय होने पर एकदेश अर्थात् स्वमात्र भो व्रत ( चारित्र ) नहीं होता यह जसका कार्य है (अविवहीं प्रमाण दवाइस, दक्ति है---उसका शब्दार्थ है, सभी आवरण विशेष वक्तव्य यह है कि इस श्लोकके आगे अभी पृथक् पसे 'प्रत्यास्थामावरण' तोसरी कषाय तथा 'संज्वलन' चौथी कपायका कार्य नहीं बताया गया है । अतएव भ्रम में नहीं पड़ जाना चाहिये किन्तु सर्वेषामन्तरंगसंगानाम' १२६ श्लोकके इस समुदायरूपकथनसे सभी अन्तरंग परिग्रहोंका त्याग करना, समझ लेना चाहिये। जिसका खुलासा इस प्रकार है- प्रत्याख्यानाबरणकषाय व संज्वलनकषाय तथा हास्यादि २, नोकाय, ये सभी अन्तरंग परिग्रह हैं और प्रमादके अन्तर्गत हैं, उनसे हिसा अवश्य होती है। देखो ! प्रत्याख्यानाबरकषाय सकलसंयम ( चारित्र ) या सकलयत, को रोकती है । अतएव उसको प्राप्तिके लिये अथवा मुनिषद धारण करने के लिये उस कषायका स्थागमा अनिवार्य है, उसके त्याग किये बिना कोई मुगिसकलचारित्री ) नहीं बन सकता तथा संज्वलनकषाय व नवनोकषायोंके त्याग किये बिना 'यथाख्यात' पारिश्रधारी नहीं हो सकता, न निर्विकल्प समाधि हो सकती है, और फलरूप न केवलज्ञान उत्पन्न हो सकता है ! अतएव उन सबका त्याग करना भी अनिवार्य है। सभी कषायोंके त्याग करने पर ही शुद्धोपयोग व श्रामण्य व समभाव या माध्यस्थभाव' हो सकता है ( होना संभव है ) अन्यथा नहीं, ऐसा समझना चाहिये । किम्बहुना-शेषपुनः ११२५।। आगे आचार्य समुदायरूपसे अन्तिम शिक्षा देते हैं। __बचे हुए अन्तरंग परिग्रह त्यागने को निजशक्त्या शेषाणां सर्वेषामन्तरंगसंगानाम् । कर्तव्यः परिहारोमादेवशौचादिभावनया ॥१२६॥ १. भावनाका अर्थ आकांक्षा करना, चित्तको लगाना या एकाग्र करना होता है।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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