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________________ २१९ पुरुषार्थसिवधुपाय २ में लभया जाते हैं-भ्रम में पड़ जाते हैं । किसी हिसक पापो दुराचारीके यहाँ धनवैभव आदि देख कर यह विश्वास कर बैठते हैं कि 'द्रव्य आदिका संचय होना' अहिंसासे या ईमानदारोसे बरतने पर नहीं होता, किन्तु मनचाही हिंसा चोरी आदि काम करने पर ही होता है। उसे इस सचाईका पता नहीं लगता कि 'धनादिको प्राप्त' खोटे कामोंसे नहीं होती किन्तु चोखे कामोंके करनेसे ही होती है ( पुण्यबंध करके इस पापी दुगवारीने पूर्वभयमें चोखा काम । जोवदया-भक्ति आदि शुभराग ) किया होगा | जिससे पुण्य कर्मका बंध किया होगा उसका उदय अभी इस पापमय अवस्थामें हुआ है अतः उसका यह फल ( नतीजा) है---पापकार्यका यह फल नहीं है, उक पापका फल आगे जब वह पापकर्म उदय में आवेगा तब मिलेगा इत्यादि वह पापकर्मी नहीं सोचता ( उसकी उसको खबर नहीं है। तभी वह अनर्थ करने लगता है परन्तु ज्ञानी सम्यग्दृष्टि हमेशा सब सोचता है और उचित कार्य करता है, अच्छे कार्यका फल हमेशा अच्छा होता है अतएव कोई विषमता या विचित्रला ( अचरजका कार्य ) देख कर नियत नहीं बिगाहना चाहिये---वह अन्याय है वस्तुका परिण मन कोई बदल नहीं सकता है, मनका धन कोई भले हो करे परन्तु सफलता नहीं मिलती इत्यादि, ऐसा खुलासा अहिंसा रसायनके बाबत किया गया है. इसको हमेशा ध्यानमें व श्रद्धानमें रखना चाहिये, कल्याण इसीसे होगा अन्यथा नहीं । वास्तवमें विचार किया जाय तो व्रतो या अवती सम्यग्दृष्टि परिग्रह या भोगोपभोगमें रति या रुचि रखते ही नहीं हैं वे सब काम अचि सहित संयोगोपर्याय में कषायादिके दवाउरे में विगारीकी तरह करते हैं । तब किसीकी विभूति आदि देखकर वे नहीं लुभयाते, न उसको बांछा करते हैं, न उसके लिये खोटे कर्म करते हैं, न उसकी उत्पत्तिका कारण पापकर्मको समझते हैं इत्यादि विवेक उसके रहता है किम्बहुना ।। ७८३ ___ 'धर्म रसायन है। उससे सब कुछ मिलता है यह मानकर भी अज्ञानी मिथ्यादष्टि धर्मके स्वरूपमें भूले हुए हैं. वे जीवहिंसा ( बलि ) को धर्म मानते हैं उन धर्म मूढ़ों ( अज्ञानियों) को आचार्य समझाते हैं । एवं हिसा धर्मका खण्डन करते हैं । सूक्ष्मो भगद्धर्मो धर्मार्थ हिंसने न दोषोऽस्ति । इति धममुग्धहदयैने जातु भूत्वा शरीरिणो हिंस्याः ॥७९॥ तर्क भगवान् का जो धर्म है वह अतिमहना है जानिये। असा समझना कठिन है उस अर्थ हिंसा ठानिये ।। ५. न्यायसे उपार्जन किये हुए थनसे धमी नहीं बन सकता, जैसे कि केवल स्वच्छ छने हुए पानीसे जलाशय नहीं भरता इत्यादि विपरीत वारणा करता है। लाभालाभ देखना चाहिये, गुणोंकी वृद्धिसे ही आत्माकी उन्नत्ति होती हे परिग्रहादिके बढ़नेसे आत्माकी अवनति होती है ऐसा विचार करना चाहिये । वही सभ्यक धारणा है अस्तु । २. ईश्वरका धर्म। ३, अत्यन्त सूक्ष्म अज्ञेय ( ज्ञातुमशक्य.) ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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