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________________ पुरुषार्थसिबापाम सूक्ष्म जीव महिं दिख पढ़ते हैं दीपक उजियाले में । अतः इन्हीका मरना संभष, राग्नि मोजके करमे ।। १३३ ॥ अन्वय अर्थ- आचार्य कहते हैं कि मालोकेन विना प्रदीप बोषितः अपि भुंजाम: ] सूर्यके उजेले बिना ( रात्रिको ) दीपकके उजेलेमें देखकर भी भोजन करनेवाला जीव ( मनुष्यादि ) [ मोज्य शुश सूक्ष्मजीवानां हिंसा कथं परिहरेत् ] भोजनमें पतित होनेवाले सूक्ष्म जीवोंको हिंसाका त्याग कैसे कर सकता है ? अर्थात् कभी नहीं कर सकता-उसका होना अनिवार्य है ।। १३३ ।। भावार्थ-रात्रिके समय भोजन सामग्रा (खाद्य वस्तु में रसोई में ) में स्वयं ही असंख्यात जीव विचरते हुए उस रसोई में गिर पड़ते हैं और वे भोजनके साथ भक्षण करने में मर जाते हैं, जिससे वह हिंसा रात्रिके खानेवालोंसे नहीं बच सकती, यह नियम है । अतएव रात्रिको भोजन छोड़ना अनिवार्य है, अवश्य त्याग देवें। ऐसा करनेसे जैन समाजमें धार्मिकता और श्रमणासंस्कृतिका संरक्षण्य-पालन हो सकता है। परन्तु दुःख है कि जैन समाजमें भी अधिकांश व्यक्ति अन्य लोगों के सम्पर्कसे उनकी देखादेखी वैसा ही आचरण करने लगे हैं, जो रागको प्रचुरताका घोतक है, या धार्मिक श्रद्धाका अभाव जाहिर करता है। 'न धर्मो धार्मिकैविना' धर्मात्मा बने बिना धर्म नहीं चल सकता। अर्थात् धर्मके पालनहारे धर्मात्मा ही हआ करते हैं। धर्मसे बढ़कर कोई दूसरी चीज आत्माकी हितकारी है, अतः बका बड़ा भारी महत्त्व है। यद्यपि धर्म के अनेक रूप ( प्रकार ) संसारमें प्रचलित हैं तथापि सबसे उत्तम ( उत्कृष्ट-अनुपम ) धर्म 'अहिंसा ही है। इस तथ्यको सभी विवेकोजन मानते हैं। किम्बहना । यद्यपि धर्म आँखोंसे दिखनेवाली चीज नहीं है। तथापि उसका फल ( बाह्यविभूतिरूप) अवश्य देखने में आता है। अत: उसपर विश्वास करके लोग बाह्य व्यवहारोधर्म धारण करते हैं । तथापि (निश्चय ) में धर्म, अमूर्तिक व आत्माकी चीज है, उसका दर्शन या प्रत्यक्ष ज्ञानने के द्वारा ही होता है, जिसका फल पूर्ण सुख व शान्ति है। अतएव उसको जानना व प्राप्त करना मनुष्यका मुख्य कार्य है । अस्तु ॥ १३३ ।।। आगे आचार्य उपसंहार अर्थात् सबका सारांशरूप ( निचोड़ ) कथन करते हैं। कि वा बहुप्रलपितैरिति सिद्धं यो मनोवचनकायैः । परिहरति रात्रिभुक्ति सततमहिंसां स पालयति ॥१३४|| बहुत कस क्या मतलब है, सार यही सबका जानी। भनवचकाय तीन बोगौसे रात्रिभोज तजमा मानो ९. उक्तंचो वसेन्मनसि यावदलं स ताबद्धन्तान हन्तुरपिपल्यगतेऽयतस्मिन् । दृष्टा परस्परहतिर्जनकात्मजानां रक्षा सवोस्यजगतः खलु धर्म एव ॥२६।। अर्थ-~-जवतक आत्मामें धर्म मौजूद रहता है तबतक शत्रु भी बदला नहीं ले सकता और जब धर्म नष्ट हो जाता है तब वाप बेटाको और बेटा बाप को मार डालता है। फलतः धर्मले ही संसारकी रक्षा होतो है । इसि ॥२६॥
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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