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________________ .. . १९८ पुरुषार्थमितपुपाच है। तब जो श्रावक { अणुवती ) अणुवत या देशवास्त्रि पालने में परिपक्व हो गया हो, उसका कसंध्य हो जाता है कि वह अपने पद । कक्षा या दर्जा ) तथा शक्ति ( योग्यता के अनुसार महान ( मनिवत को भी क्रमशः घारण करे क्योंकि बिना उसके मोक्ष नहीं होता । निश्चयो मनिकन । ( पूर्णवीतरागता ) हो मोक्षका मार्ग है, दूसरा नहीं है। व्यवहारसे बाह्यत्रताचरणरूप पाभरानो भी मोक्षका मार्ग माना जाता है परन्तु वह सत्य नहीं है। मनुष्यजन्म ( पर्याय ) को सफलता । मुनिव्रत धारण करने पर हो हाली है। अतएव उसका अभ्यास व पालन करना अनिवाम है। परन्तु पद और योग्यताको देखकर ही कदम उठाना हितकर हो सकता है अन्यथा नहीं। कोगे। भावुकता या देखादेखों में आकर सत्रा कार्य कर बैठता और प्रोले अष्ट हो जाना.. बुद्धिमानी महो। है...-अज्ञानता है। संयम व चारित्रका धारण करना मंदिरपर सोनेका कलशा चढ़ाना है। एक बड़े महत्त्वक्री चीज है परन्तु यह संयम सम्यग्दृष्टि ही पालन कर सकता है मिथ्यादृष्टि तो उस स्वरूपको भी नहीं जानता तब पालेगा क्या? सम्यग्दृष्टिके ६३ गुण होते हैं। उत्तका कमत स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा ३२६ में किया है जिनका उल्लेख पहिले किया गया है। इस विषयमें उपयोगी गाथा गिण्हदि मुंघधि सीबी वे सम्म अवधाराखो। परमकषायषिणासं देशपय कुदि कसं १३ || स्था का अर्थ-जीव दो सम्यक्त्वको अर्थात् जपशम व क्षयोपशम सम्यक्त्वको तथा लामा कषाय और देशद्रत ( अणुव्रत ) को असंख्यातबार ग्रहण करताब छोड़ता है ( मुक्त नहीं होता। संसारमें घूमता रहता है ।। अतएय ऐसा उपाय करना चाहिये जिससे संसारका घूमना मुट जाय । ( बंद हो जाय । और वह उपाय एकमात्र क्षायिकसम्यग्दर्शनके साथ महानतको ( मुनियो । धारण पालन करना है । फलतः क्षायिकमहावत अवश्य धारण करना चाहिये अर्थात मुनियोमा अवश्य लेना चाहिये सभी मनुष्य जीवनकी सफलता हो सकती है लेकिन वरायनाम नहीं किन यथार्थरूप, शक्ति को देखकर मुनिदोक्षा लेना चाहिये यह निष्कर्ष है। यह रूप नकली नहीं होगा। चाहिये, क्योंकि नकल असलका मुकाबला नहीं कर सकता यह नियम है। यदि शक्ति में पाया। न हो तो कभी चारण न करे, उसकी श्रद्धा या रुचि ही हमेशा रखे, जिससे काम कर सम्यग्दष्टि तो बना रहे, भ्रष्ट मिथ्यादृष्टि न हो जाय किम्बहुना विचार किया जाय, समान पाखंड बुरा होता है। उच्चता प्राप्त करने को लालायित तो रहे परन्तु योग्यताको पहिले यस लेवे तभी कार्यकारी है। चरणानुयोगको पद्धतिसे बाह्य आचरण ऊंचा रखना कसंध्य है जो प्रत्याख्यानावरण कषायके अभावमें हो सकता है क्योंकि सकलसंयम या महावतको पातक वही है। नोट-क्षायिकसम्यग्दर्शन और क्षपकणीके साथ मुनिपद हो संसारसे छटनेका छन मात्र उपाय है-उससे ही अनंतानुबंधी कषाय एवं उपर्युक्त दोनों सम्यग्दर्शन ( उपसम । सो । पशम ) छूट जाते या समाप्त हो जाते हैं तभी मुक्ति होता है अर्थात् अणुव्रत, उपशामक्षयो सम्यग्दर्शन, अनंतानुबंधी कषायका सदभाव, ( उपशमादिरूप या उदयरूप अस्तित्व । मोसमा
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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