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________________ ३२८ पुरुषार्थसिद्धयुपाथ पदको ) नहीं प्राप्तकर सकता यह नियम है। तब देशव्रती के प्रत्याख्यानावरणकषायका सूक्ष्म या मंद उदय पाया जाता है अभाव नहीं होता यह खुलासा है || १६०|| भावार्थ - तत् और तत्सदृशमें भेद होता है। पंचमगुणस्थानवाला देशव्रती जब दिग्aतादिक और शिक्षात्रतादिक पालता है तब मर्यादा बाहिर पूर्ण त्याग होनेसे कषायकी मन्दताके सबब परिणामों में दिता विशुद्धता ) होती है अतएव मन्दताके समय क्षय जसो हालत हो जाती है, जिससे सदृशता तो आ जाती है किन्तु तद्रूपता नहीं आती। फलतः उपचारसे वैसा कह देते है किन्तु निश्चयसे वैसा वह नहीं होता। ऐसी स्थिति में पंचमगुणस्थान वाले श्रावक प्रत्याख्यानावरण कषाय ( चारित्रमोहका भेद ) का सर्वथा अभाव नहीं होता अपितु अत्यन्त मन्द उदय हो जाता है, जिससे महाव्रतकी कुछ समानता मिलने लगती है, ( इसका खुलासा समन्तभद्राचार्यने रत्नकरण्ड श्रावकाचारके श्लोक नं० ७१ में किया है । परन्तु निश्चयमें वह महाव्रती या सकलसंयमी नहीं है क्योंकि निश्चयसे महाव्रत और सकलसंयम एक हो चीज है, नामभेद है अर्थभेद नहीं है, और वह छठवें गुणस्थानमें ही होता है पहले नहीं होता, यह नियम हैं । यह उपसंहार में सारांश कहा गया है इसे समझना चाहिये, भ्रममें नहीं पड़ना चाहिये । छठवें गुणस्थान ( मुनिपना) के पहिले यदि कोई सचेल tree अभ्यास करता हो तो करे परन्तु वह निर्दोष नहीं पा सकता किम्बहुना मोक्षमार्गी दोनों होते हैं, शुभोपयोगी सम्यग्दृष्टि व शुद्धोपयोगी सम्यग्दृष्टि | किन्तु शुभोपयोगी व्यवहारनयसे मोक्षमार्गी है और शुद्धोपयोगी निश्चयनयसे मोक्षमार्गी है यह भेद समझना, सभी बराबरीके नहीं हैं । लोकमें सकलचारित्र या सकलसंयमकी बाहिर निशानी मुनिवेष' या महाव्रत है। सो जिन जीवोंके चारित्रमोहके भेद प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय नहीं होता ( क्षयोपशम हो जाता है) उनके वह निशानी प्रकट होती है सभी के नहीं, अर्थात् वह निशानी ५ पांच गुणस्थान ( देशव्रती ) वाले अणुत्रतोके प्रकट नहीं हो सकती क्योंकि उसके प्रत्याख्यानावरण कषायका सूक्ष्म उदय रहता है। फलतः सदा के लिये उसके आरंभादिकका पूर्ण त्याग नहीं हो जाता सिर्फ प्रोषधोपवास व्रत के समय नियमरूपसे कुछ होता है, उसके पश्चात् फिर वही आरंभादिकार्य करने लगता है यह खुलासा है ।। १६० ३ -- भोगोपभोगत्याग ( परिमाण ) शिक्षाव्रतका स्वरूप भोगोपभोगला विश्ताविरतस्य नान्यतो हिंसा ! अधिगम्य वस्तुवं स्वशक्तिमपि तावपि त्याज्यौ || १६१ ॥ पद्य raath हिंसा होतो भोग और उपभोगहि से। और दूसरा कारण नहीं है, यह तुम जानो निश्चय से || १. भुनिलिंग बाहिर ५ पाँच तरहका होता है ( १ ) नग्नवेष ( दिगम्बररूप ) ( २ ) केशहुंचन ( ३ ) शुद्धता कुलप्रतिको उच्चता ) ( ४ ) आरंभादि बाह्य परियहका त्याग ( ५ ) करीरसंस्कारका त्याग । अन्तरंग लिंग भी ५ प्रकारका बताया है। प्रवचनसार चारित्र अधिकार ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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