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________________ शिक्षावतप्रकरण १२७ क्षीणकर बैगम्यक संस्कार डालता है एवं क्रमशः शुद्धोपयोगको प्राप्तकर मोक्ष व उत्तम सुखको प्राप्त करता है। लेकिन बीच में कर्मधाराके सबबसे अचिपूर्वक बाह्य व्रत संयमरूप निमित्तोंको भी मिलाता है और स्वभावतः ( विना यत्नके ) कभी वीतरागताको प्राप्त करता है अस्तु । निमित्तों को निमित समझते हुए सुनको होन दशामें कथंचित् उपादेय समझना चाहिये किम्बहुना । सम्यग्दर्श नादि गुण आत्माके यत्नसाध्य । नैमित्तिक ) नहीं हैं ऐसा निश्चयसे समझना चाहिये, क्योंकि देसा मानने से वस्तुको स्वतंत्रता नष्ट होती है जो वस्तुका स्वभाव है इत्यादि दोष आता है। सारांश-व्यवहारमयसे प्रोयधव्रताको भोगापभोमके बाह्यसाधन इन्द्रियोंको व अन्तरंग साधन कषायोंको या इन्द्रियोंवेः पियोंकोचक नियममा नाहिये तभो इन्द्रियसंयम व प्राणि संयम पल सकता है। फलस्वरूप गुति व समितियों का भी वह सभ्यासरूपसे पालन करे जिससे आगे विशेष लाभ होगा अस्तु । यह व्यवहारमयसे आचार्य महाराजका उपदेश है ।।१५८-१५२।। आगे आचार्य उपसंहाररूप कथन करते हैं, जिसमें निश्चय और व्यवहारका खुलासा है---- इत्थमशेषितहिंसः प्रयाति स महाबतित्यमुपचारात् ! उदयति चरित्रमोहे लभते न तु संयमस्थानम् ॥१६॥ पद्य पूर्वविधिले जिस श्रावकने हिंसाको त्यागा है मिस । व्यवहरनयसे उसे कहा है महानप्तीके सदश मिस ॥ निश्चयनग्रसे महायती साहि, जबतक प्रत्याख्यान कषाय। सकलावती नहिं हो सकता है देशयता अणुमतको पाय अन्वय अर्थ.... प्राचार्य कहते हैं कि इत्यमशेषितहिंस.स] पूर्वोक्त विधिसे जिसने अणुव्रत पालते हुए भी प्रोषधोपवासके समय पूर्ण हिंसाका त्याग किया है वह [ उपचाशत् महानतिनं भयाति] उपचारसे अति व्यवहारनबसे महानतीपनेको प्राप्त करता है-अर्थात् निश्चयनयसे वह महायसी नहीं हो सकता, कारण कि [ चरित्रमोह उदयति तु संगमस्थानं न लभते ] चारित्रमोहनीके भेद प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय रहते हुए कोई जीव संयमस्थानको अर्थात् सकलवतको ( मुनि १. सकलवतयारी--- गुणस्थानवर्ती मुनिपदको प्राप्त नहीं कर सकता, जहाँ प्रत्याख्यानावरणकषायका अभाव होता है या उदय नहीं है। उनले च-दसमिनिकापायाणां दखाण तहिंदियाण पंचतु। धारणपालणणिग्गहचागजमो संघमो भणियो ।।४६५॥ मो० जी० अर्थ-श्रत धारण करना, समितियोंको पालना, कषायोंका निग्रह करना, अनर्थदण्डोंका त्याग करना, इन्द्रियोंको वश में करना ( विजय पाना ) संया कहलाता है जो छठवें गणस्थानमें ही हो सकता है, पात्र मुणस्थानमें नहीं हो सकता।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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