SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ dameMINE पुरुषार्थसिवयपाय दष्टिसे ( ज्ञाता भेदज्ञानी हो जानेके कारण ) या सभोका त्याग जैसा मनोभाव हो जाता है अर्थात् सभीसे उसकी विरक्ति या अरुचि हो जाती है क्योंकि भेदज्ञानके साथ वैराग्य व सुख अवश्य होता है तथा त्यागकी भावना भी अन्तरमें प्रबल प्रकट हो जाती है वह हमेशा परसे भिन्न होनेकी प्रतीक्षामें जागरूक रहता है। कमी सिर्फ शक्तिकी रहती है, जो क्रमश: प्रकट होती है। त्याग करनेके लिये उसको आत्मबल चाहिये जो कर्मोपाधि { रागादि ) के वियोग होने पर ही होता है। फलतः बलके विना विमा रुचिके भी विगारीकी सरह वह दुनियाँके कार्य करता है, उनके करने में उसे उत्साह व हर्ष नहीं होता किन्तु वह दुःख ही मनाता है, यह विशेषता उसके पाई जाती है, जो मिथ्यादृष्टि अज्ञानीके नहीं होती। वह सम्यग्दृष्टि विवेकी निरन्तर औदयिक भावोंके त्यामनेका पुरुषार्थ करता रहता है चाहे वे शुभ रूप हों या अशुभ हों, उनमें उपादेयता कतई नहीं रखता तथा पुरुषार्थ करनेको वह निमित्त कारण ही मानता है, वस्तुका परिणमन उसके आधीन नहीं मानता। अतएव वहनद्धिमान कार्य सिद्ध न होने पर भ्रम या दःस्त्र नहीं करता, और परुषार्थ करना भी बन्द नहीं करता, कारण कि वैसा भाव संयोगी पर्यायमें हुआ ही करता है कि किसी कार्यको करनेकी इच्छा होना, जो कर्मधारा या कषाय भाव है वह उसके मौजूद रहता है। परन्तु अटल श्रद्धान यही रहता है कि 'जो जन्न जैसा होना है वैसा ही होगा अन्यथा नहीं' इत्यादि। देखो ! अविरल सम्यग्दृष्टि चतुर्थ गुणस्थानवाला, संयम धारण नहीं कर सकता किन्तु संयम धारण करनेकी छटपटी ( प्रबल इच्छा ) उसके सदैव रहा करती है यह उसका मानसिक चित्र है। बाहिरमें त्याग संयम नहीं दिखता है यह सत्य है, उसका कारण वीर्यान्तराय कर्मका क्षयोपशम कमती रहता है तथा रागादिका उदय प्रबल रहता है, जिससे, त्याग करने की हिम्मत व उत्साह उसके नहीं होता, क्योंकि संयोगी पर्याय में सभी कारणकूट चाहना पड़ते हैं। तब आत्मा में हिम्मत व बल आवरणके अभावसे होता है यह यथार्थ है। सदनुसार ज्यों रागादिक व उसके संस्कार मन्द पड़ते जाते हैं व उत्साह बढ़ता जाता है तथा वीर्यान्सरायका अधिक क्षयोपशम होता जाता है, त्यो २ त्याग व संयम बढ़ता जाता है। वैसे तो उसके अप्रयोजन भूत पदार्थोंका त्याग होता ही है, जो बड़ी बात है। भीतर विराग तो सभीसे रहता है, जिससे संवर व निजंग प्रतिक्षण हुआ करतो है अतः वह मोक्षमार्गी है, संसारमार्गी नहीं है अस्तु । सम्यग्दर्शन और स्यागमें अविनाभाव नहीं है सम्यग्दर्शन या सम्वरज्ञान जिस जीवको हो जाता है उसके उसी समय पर द्रव्यका त्याग ( सम्बन्ध विच्छेद ) भी हो जाना चाहिये ऐसा नियम ( अविनाभाव या व्याप्ति नहीं है न कोई बलात्कार रूप सम्बन्ध है जो जबर्दस्ती त्याग करा ही देता हो । दोनों ( ज्ञान व त्याग ) स्वतंत्र गुण हैं व समय २ पर होते हैं । जिस प्रकार ज्ञान का, वैराग्य-सुख त्यागको भावनाके साथ गठबंधन (व्याप्ति) है, वैसा त्यागके साथ नहीं है। कारण कि त्यागके लिये विशेष शक्तिको आवश्यकता होती है, वह जबतक उत्पन्न न हो. तबतक इच्छा रहते हुए भी त्याग नहीं कर पाता। बुराईका ज्ञान हो जाना अलग बात है और बुराईका त्याग करना दूसरी बात है, अतएव झामके साथ त्यागका नियम बताना अज्ञानता है वैसा कदापि नहीं होता । हो यह बात अवश्य है कि सम्य 14
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy