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________________ सम्यक चारित्र होता है या मलोके नष्ट होनेपर होता है ( अतएव पराश्रित है) और निश्चयनयसे उदासीनता के आनेपर होता है ( संसार शरीर भोगों से अरुचि होनेपर होता है ) इत्यादि । ( स्वाधीनता है । यतः पराधीनता उसमें नहीं पाई जाती है । स्वाधीनता है ) निमित्ताधीनता नहीं है, जो व्यवहार की सूचक है । निश्चयतयकी अपेक्षाके वह सिर्फ स्वविकसित आत्माके ( स्वाश्रित ) रूप है, उसमें कोई भेद नहीं है । वह एक स्वभाव भावरूप शुद्ध है । पापक्रियायोंसे रहित योगका खुलासा पापक्रियाओं का अर्थ - जिनसे पाप कर्म अर्थात् घातिया कर्मोंका आसव और बंध होता है, उनको पापक्रियाएँ कहा जाता है। वे पापक्रियाए मुख्यतया ४ चार हैं--यथा १ मिथ्यादर्शनक्रिया, २ अदिति क्रिया, ३ प्रमाद क्रिया, ४ कषाय क्रिया । ये जबतक रहती हैं तबतक बराबर घातिया कर्मो आ व बंध हुए करता है ऐसा नुसार चार विना अकेले योगों पाप का बंध नहीं होता किन्तु पुण्य कर्मों ( अघातिया कर्मों ) का बंध होता है | वह भी प्रकृति प्रदेशरूप होता है, स्थिति अनुभागरूप नहीं होता, अतः निष्फल है । उ--- १. वृत्ति । १४७ पुण्यफला अहंता वेसि किरिया पुणो वि बोदयिगा । मोहादी विरहदा तम्हा सा खाइग सिमदा ॥ ४५ ॥ प्रवचनसार गाथा नं० ४५ अर्थ - अर्हन्तोंको पुण्य कर्मरूप फल ( बंध ) होता है क्योंकि पूर्वबद्ध अघातिया ( पुष्य क) कर्मोंका उनके उदय पाया जाता है परन्तु वे मोहकर्म रहित होनेसे क्षायिक जैसा कार्य होता है या करते हैं संसार के कारण नहीं हैं यह तात्पर्य जानना ।। ४५ ।। चारित्रके दो भेद ( १ ) शुद्ध चारित्र ( स्वभावरूप आचरण ) ( २ ) अशुद्ध चारित्र ( विभावरूप आचरण ) शुद्ध चारित्र, वीतरागतारूप या स्वरूपाचरणरूप - शुद्धोपयोगरूप माना गया है। और २. दुखंडागम सूत्र २२ पुस्तक ६ वीं । ३. चारित्रपाहुड गाथा सं० ४ -- जिगणादिट्टिसुद्धं पढमं सम्मरचारितं । fatri Haveri जिणणाणसदेसियं तं पि ॥ ५ ॥ अर्थ :-- चारित्र वाचरणको कहते है । वह आचरण दो तरह होता है ( १ ) श्रान रूप आचरण अर्थात् शुद्ध सम्यक्त्वाचरण ( शुद्ध बीतराग स्वरूपका अनुभव करना-स्वरूपमें लीन होना, स्वरूपाचरणमित्यर्थः ) शुद्ध चारित्र इति ( २ ) संयमरूप आचरण, व्रतादिका पालना आदि रूप, शुभरागमयarentafta ar araारित्र इति । पहिले भी कहा जा चुका है ।। ५ ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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