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________________ सम्यक चारित्र ૧૧૨ यदि उसका किसी कारणवश विघात ( मरण ) हो जाय तो वह उसका हिसक या हिमाका भागी स्वामी कर्ता या भोक्ता नहीं है न हो सकता है ऐसा न्याय है, असली निर्धार है । इसी लिये निश्चयन (न्याय ) से, अनिच्छुक या अभिप्राय रहित असंकल्पी जीव, उस हिंसा ( प्राणघातरूपद्रव्य हिंसा ) का अपराधी या सजावार नहीं हो सकता यह तात्पर्य है । हाँ वही जॉव उस दशा में या उमरागी होता है या होता है जबकि वह किसी जीवको मारने ( वासने ) का इरादा या संकल्प या विभाव भाव ( विकारी परिणाम ) रखता हो । चाहे वह जीव न मर सके तभी वह अपराध का भागी अवश्य होगा, कारणकि परिणाम ही बंधके कारण होते हैं, खाली किया भावविना क्रिया ) बंधका कारण या फलदात्री नहीं होती, निश्चयमें भावही मुख्य है, क्रिया नहीं है तथा दूसरे का पाप gor या हिंसा अहिंसा दूसरेको नहीं लगती, अपना अपना ही भोगना पड़ता है जैसे उसके भाव हो । परस्पर निमित्तनैमित्तिक संबंध अवश्य रहता है इति 1 आशंका और उत्तर यहाँ यदि यह आशंका की जाय कि जब निश्चयनवसे पर जीव धात होने पर ( परजीवके मरण होने पर ) हिंसा नहीं होती अर्थात् हिंसा का पाप, जिसके द्वारा परजीव मरा है, उसको नहीं लगता। तब तो फिर जीव हिंसाका त्याग करना व्यर्थ है ? अर्थात् परजीवोंकी रक्षा या दया नहीं करना चाहिये वह निष्फल है ? इसका उत्तर आचार्य, व्यवहारयसे देते हैं कि परिणामको विशुद्धि के लिये अर्थात् निर्मलता ( अशुभसे निवृत्ति ) या वीतरागता के लिये, बाह्य निमित्तोंका भी त्याग करना जरूरी है। बाह्यनिमित्तों के त्यागसे अर्थात् जीवादिपरिग्रहों को छोड़ देनेसे न राग-द्वेष होगा, न हिंसा-अहिंसाका विकल्प होगा, जिससे कोई बंध या अपराध होना असंभव है ( पूर्ण वीतरागता प्राप्त होने पर संयोगी में भी कुछ नहीं होता यह लाभ होना है ) । फलतः जिन ( व्यापारादि ) से हिंसा होने की संभावना हो उनका त्याग करना या उनसे सम्बन्ध-विच्छेद करना भी उचित हो है या कर्तव्य है । अथवा } गृहस्थ में रहते हुए परिणामोंको विशुद्धि ( शुभ राग व शुभ प्रवृत्ति के लिये पर जीवों को दया या रक्षा करना कर्तव्य है। उससे पाप प्रवृत्ति व अशुभ राग छूट जाता है, तब tant रक्षा से होती है, जिससे पुण्यका बंधरूप व्यवहारमें होता है। गृहस्थाश्रम में सदाचारका पालना, पुण्य कार्य करना ही धर्मकी निशानी है । देव पूजादि सब पुण्य कार्य या धर्म कार्यं माने जाते हैं । 'दया धर्मका मूल है, यह कहा भी जाता है । फलतः स्वजीव और पर १. भावविसुद्धिनिमित्त बाहिर संगस्स की रए लाओ । अहिराओ विलो अव्यंग ॥३॥ भावपाहुड कुन्दकुन्दाचार्य भावकी विशुद्धता के लिए बाह्य परिग्रहका त्याग करना चाहिए किन्तु विना अन्तरंग परिछूटे याग निष्फल हैं अतः दोनों त्याज्य हैं । २२
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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