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________________ Heta WE अन्वय अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ यस्मिन् स्वरूपात सदपि वस्तु ] जहाँपर स्वरूप या स्वक्षेत्रादिसे वस्तु मौजूद हो [ च पररूपेण अभिधीयते ] और परस्वरूप ( अन्यथा या विपरीत ) कह दिया जाय वहाँ [ इदं तीर्थ अनृतं विज्ञेयं ] तीसरे नम्बरका महा असत्य ( औरका और समझना चाहिये ( वह तीसरे नम्बरका असत्य है ) [ अथा गोः अश्व इति ] जैसे कि बेलको घोड़ा कह देना यह दृष्टान्त है ॥९४॥ भावार्थ-ये उपर्युक्त तीनों उदाहरण महा । सर्वथा ) असत्य के हैं जो सर्वथा वर्जनीय हैं, ant geषको कभी उनका उपयोग या प्रयोग नहीं करना चाहिये। बुद्धिमान् विवेकी जोव एक तरहसे अलौकिक जीवन व्यतीत करते हैं, उसीमें उन्हें आनन्द आता है, उसीसे वे अपना जीवन सफल मानते हैं वे तमाम पापोंसे परहेज करते हैं, सबसे निराले ( विरक) रहते हैं एवं क्रमश: करते-करते संसारसे पार हो जाते हैं ||१४|| आगे आचार्य असत्य का चौथा प्रकार ( भेद ) बतलाते हैं । दुःख व हानिकारकरूप असत्य विसंयुतमप्रियमपि भवति वचनरूपं यत् । सामान्येन त्रेधा मतमिदमनृतं तुरीयं तु || ९५|| पद्य इसीलिये अभेद रूप वह वह असत्य है वचन जगत्में जो sar ज्योंका यों कह देना व निन्दित पापयुक्त अरु अप्रिय वचन असत्य कहाता ३ असत् चतुर्थ बताया 1 जीवोंको दुःख देवें । एकान्त नहीं सेवे ||१५|| अन्वय अर्थ----आचार्य कहते हैं कि [ यत् रूपं गर्हितं भवद्ययुतं अपि अभियं सामान्येन श्रेधा भत्रति ] जो कथन या वाणी, गर्हित अर्थात् निन्दनीय हो, अवद्यरूप हो अर्थात् दोष या कलंक लगानेवाली हो, और अप्रिय अर्थात् कठोर मर्मभेदो हो, वह सामान्यतः उक्त तीन प्रकारकी होती है [ तु इदं तुरीयं अनृतं मतम् ] और इसको असत्यका या महा असत्यका चौथा भेद माना गया है ।। ९५ ।। भावार्थ उक्त तीनों प्रकारकी वाणी या बोलचाल ( कथन ) सामान्यत: चौथे ( दुःख. कारक ) असत्य में शामिल होता है ऐसा आचार्य महाराजने कहा है जो प्रमाणिक है। और वह सब यथाशक्ति त्यागने योग्य ( है ) है । व्रती पुरुष उसका प्रयोग न करें यह आज्ञा है । शेष अवती पुरुष उसके लिये बँध तो नहीं हैं किन्तु जो विवेकी हैं सम्यग्दृष्टि हैं, उनका भी कर्त्तव्य है कि वे भी यथासंभव बुरा जानकर उक्त प्रकारके वचन न बोलें अर्थात् बेसा अभ्यास करें जिससे जीवन सुधरे व कल्याण हो अवसर अथवा मनुष्य जन्मादिको पूर्णं योग्यता बार-बार नहीं मिलती
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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