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________________ मस्त्रीकरण विकल्प कम होते हैं, राग छूट जाता है-संवर हो जाता है-बंध नहीं होता और वैराग्य होनेसे पूर्वबद्ध कर्मोकी निर्जरा भी होता है । यह सब ध्यान देनेकी बात है । जब यह निश्चित है कि एक साथ एक काल सर्वत्र प्रवर्तन नहीं हो सकता तब उसका त्याग कर देना ही असमर्थतामें उत्तम है बुद्धिमानो है, व्यर्थ ही विना प्रवर्तन नि यो प्रोपना नहीं बनाना ज्ञानोके ज्ञानधारा व कर्मधारा दोनों साथ-साथ बहती हैं अतएव वह संयोगी पर्याय में तमाम . कार्य करता हुआ भी जानधारासे उन पर्यायाश्रित कार्योंका बता या स्वामी नहीं बनता, सबको विकार या औषधिकभाव समझता है एवं उन सबसे विरक्त या उदासीन रहता है, अरान्ति करता है । फलस्वरूप उनके प्रति हमेशा हेयबुद्धि रहता है, उनके होने में उसे प्रसन्नता ( खुशी ) नहीं होती, पोड़ा न सह सकाने के कारण वह कड़वी औषधिको तरह उनका सेवन बाध्य होकर करता है यह विशेषता उसके पाई जाती है । जीवनका मूल्य वीतरागता व विज्ञानता ही है । नोट ----मर्यादाका काल, इसमें दिन रात्रि पक्ष महीना ऋतु ( दो माह ) अयन (छह माह ) संवत्सर ( एक वर्ष ) आदि रूप होता है । उसो क्रमसे करना चाहिये, अस्तु ।।१३९।। आगे क्षेत्रपरिमाण ( देशवस ) करनेका फल ( लाभ ) आचार्य बताते हैं । इति विरतो बहुदेशात् तदुस्थहिंसाविशेषपरिहारात् । तत्कालं विमलमतिः श्रयत्यहिंसा विशेषेण ॥१४॥ देशप्रतीक हिंसा होसी अल्प, अक्षुत दिसा टलती । इसीलिये बहुलाम होत है, बहुत अहिंसा मी पलता ।। ऐसा सोच विचार करत है, विज्ञानी निर्मल धुद्धिः । उसको फल सत्काल मिलत है, पूर्ण अहिंसामय शुद्धिः ।। अन्यय अर्थ—आचार्य कहते हैं कि [ विमलमतिः इति बहुदेशात् विस्तः ] मेदविज्ञानी निर्मलबुद्धिका धारक श्रावक पूर्वोक्त प्रकार बहुतक्षेत्रमें प्रवर्तन ( व्यवहार-आनाजाना आदि ) बन्द कर देनेसे अर्थात् अल्प या सोमित क्षेत्र में निर्वाह, प्रवृत्ति या कारोबार करनेसे [ नियतकालं तदुष्यहिंसाविशेषारिहारात ] नियतकाल तक बहुत क्षेत्रमें (दिग्नसमें ) निर्वाह करनेसे उत्पन्न होनेबाली अधिक हिंसाके त्यागसे [विशेषेण अहिंसा अयति ] विशेष अहिंसाको प्राप्त कर लेता है. इस तरह लाभ होता है ।। १४० ।। ___ भावार्थ-नियत काल तक अर्थात् कालकी मर्यादा लेकर किये हुए त्याग पर्यन्त, क्या होगा कि अधिक क्षेत्र व उसमें होनेवाले प्रवर्तन ( निर्वाह का त्याग कर देसेसे तसंबंधी अधिक हिसा न होकर सिर्फ बर्तमानमें उपयोग आनेवाले क्षेत्रके भीतर ही अल्पहिसा होगी और बहुत अहिंसावत ( संथम ) पलेगा, यह लाभ होगा, ऐसा विचार करके हो विवेको दूरदर्शी पुरुष लागि or Taster finam k C. ___NAPPh. HA?? : 13.1
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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