SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीव द्रव्यका लक्षण नहीं होती है ( यह निश्चयपना है)। बाहिरमें उक्त कार्योके करने में अन्तराय या विश्न उपस्थित हो जाता है यह कहना व्यवहारपना है। इसके भी दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्त राय, उपभोगान्तराय, वीर्यान्तराय ये पांच भेद होते हैं। (घ) माहनीयकर्म----यह जीवके सम्यग्दर्शन व सम्यक्चारित्र गुणको वातता है एवं समुदाय रूपसे 'सुख' गुणको धात्तता है, आकुलता उत्पन्न करता है। इसके २८ भेद होते हैं । दर्शन मोहके ३ भेद, चरित्रमोहके २५ भेद, कुल २८ भेद । इनका प्रत्येकका स्वरूप जहाँ-तहाँ प्रकरणमें कहा जायगा जो समझ लेना ( इति धातियाकर्म ) अघातियाकर्म (च) आयुकर्म ----यह जीवको पर्यायमें स्थिर रखता है बेडोको तरह बाँधे रहता है, परन्तु यह स्वभावका धातक न होनेसे अघातियाकर्म कहलाता है । जबतक इसके चार भेदोंका यथास्थान उदय रहता है तबतक बढ़ासे निकल नही पाता यह विशेषता है । इसके नरकायु वगेरह ४ चार REE ( छ । नाभकर्म----इसके उदयसे अनेक तरहके शरीर जीवको प्राप्त होते हैं। इसके ९३ भेद माने जाते हैं। (ज) गोत्रकर्म-इसके उदय से जीव को मोचा ऊंचा कुल ( जाति या गोत्र ) प्राप्त होता है। इसके २ भेद है १ नीच गोत्र २ उत्पन्न गोत्र । ( झ ) वेदनीयकर्म-इसके उदयसे जीवको इष्ट अनिष्ट बाह्य सामग्री प्राप्त होती है । इसके १ सात्तावेदनीय २ असातावेदनीय दो भेद हैं। ही नोकर्मका स्वरूप सोकर्म शरीर व इन्द्रियोंको कहते हैं। जिस प्रकार ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म जीवको सुख दुःखादि देने में निमित्तता करते हैं, ( सहायता देते हैं ) उसी प्रकार शरीरादि भी कुछ कम ( अल्परूपमें ) सुख दुःखादि देनमें निमित्तता करते हैं अतएव इनका नाम नी ( ईषत् ) कर्म ( कार्य करनेवाले ) पड़ता है, ऐसा समझना चाहिए । शरीरके भेद औदारिक ( स्थूल ), वैक्रियिक, आहारक आदि होते हैं, जो संसारी जीवके बराबर पाये जाते हैं व कोंके साथ २ रहते हैं इत्यादि इनको ही साधन भी कहते हैं इत्यादि। भावकर्म व स्वरूप जीवके जो रागद्वेष मोहरूप ( कषायरूप ) भाव होते हैं, उनको ही भावकर्म या विकारीभाव कहते हैं, असल में यही कर्म जीवको संसारसे बांध देता है अर्थात् संसाररूप नाना तरहकी पर्यायों में जकड़ देता है क्योंकि उन भावकर्मोसे तरह २ का नया कर्मबन्ध होता है और उसके उदय आनेपर दुःख सुखको सामग्री मिलती है तथा उसके भोगने में हविषाद च सुख दुःखकी कल्पना PERHMix
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy