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________________ पुरुषार्थसिद्धधुपाय नोटबन्धका अर्थ, एक क्षेत्रमें श्लेषरूप { धनिष्ठ ) सम्बन्धका होना, परन्तु संयोग रूप ही रहना, तादात्म्य रूप नहीं होना इत्यादि। आस्रव और अन्धमें यह भेद है कि आस्रव कार्मापा द्रव्यके आने मात्रको कहते हैं और बन्ध उस आये हुए द्रव्यके दो-चार समय ठहरनेको कहते हैं अर्थात् जो आकर तुरन्त चला जाय वह बन्ध नहीं है ईर्यापथ आस्रव ही है। स्थिति अनुभाग जिसमें पड़े असलमें वही बम है | - Teni , २३ । कर्मके भेद व उनका लक्षण कर्म ३ प्रकारके माने जाते हैं। यथा-१ द्रव्यकर्म, २ नोकर्म, ३ भावकम । प्रत्येक कर्मका स्वरूप निम्नप्रकार है द्रध्यकर्म व स्वरूप (१) द्रव्यकर्म, पुद्गलपिडकी पर्यायरूप है, उसके ज्ञानाबरणादि ८ मूल भेद हैं और १४८ सबके उत्तर भेद हैं । जो निम्न प्रकार हैं। उनमें धातियाकर्म (क ज्ञानावरणकर्म, जीवके व्यक्त ज्ञान गुणको धातता है, अर्थात् ज्ञानको प्रकट नहीं होने देता, वह ज्ञान गुणको प्रकट न होने में निमित्त कारण है। नोट'--आवरण सब व्यक्तताके घातक होते हैं, शक्तिके घातक नहीं होते, अतः स्वभावकी व्यक्ति दशाके घातक होनेसे उन्हें घातिया कर्म कहा जाता है । जो जीवके ज्ञान गुणको धाते उसे ज्ञानावरण ( घातिया कर्म ) कहते हैं । इसके ५ भेद होते हैं । ( ख ) दर्शनावरणकर्म, यह जीवके दर्शन गुणको व्यक्त ( प्रकट ) नहीं होने देता अतः वह भी धातिया कर्म है, इसके ९ भेद है। (ग) अन्तरायकर्म--जो जीवके बल ( वीर्य ) गुगको पाते उसको अन्तरायकर्म कहते हैं। उसके उदय में जीवको अनन्त बल प्रकट नहीं हो पाता। फलस्वरूप ५ पाँच प्रकारकी शक्तियाँ ( सामर्थ्य ) प्रकट नहीं होती । जैसे दान देनेको शक्ति, लाभ होने की शक्ति, भोग करनेकी शक्ति, उपभोग करनेकी शक्ति ( क्षमता या उत्साह ) और बल या पुरुषार्थ करनेकी शक्ति प्रकट या जाग्नत १. बन्धरूप पर्यायोंका मूलकारण ‘क्रिया' हैं परिणति है । अर्थात् क्रिया ( भावरूप का ही फल हर तरहकी पर्यायोंको प्राप्त करना व दुःखका भोगना है। क्रिया दो तरहकी होती है (१) भावरूप अर्थात् उपयोगरूप (२) योगरूप ( परिस्पन्दनरूप ) इन दोनोंक रहले मोर व सुख प्रास नहीं हो सकता। अतएव ( उपयोगशुद्धि व योगशुद्धि दोनोंकी प्राप्ति होना मुक्तिका कारण ( उपाय या मार्ग ) है ऐसा समझना चाहिए । देखो, प्रवचनसार गाथा ११७१२५ तथा २०५-६ चरित्राधिकार । उपयोगमें वीतरागताका होना-रामाविका दूर होना उपयोगद्धि है। आत्माके प्रदेशोंका स्थिर या अचल होमा योगशुद्धि है अस्तु। :
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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