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________________ " अहिंसाणुव्रत उनके दुःख नष्ट हो जाते हैं अतएव उनके मार डालनेमें धर्म होता है, अधर्म या पाप नहीं होता, यह लाभ है। आचार्य खंडन करते हैं कि [ इति वासनाकपाणीमादाय मोमिन ] पूर्वोक्त मिथ्या वासना या कुशिक्षारूपो कृपाणी ( तलवार )को ग्रहपकर कोई भी समझदार दुःस्त्री प्राणियों को भी न मारे, इसी में भलाई है । हिंसा किसी जीवको हो उससे पाप व अधर्म लगता ही है, उससे धर्मकी प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती। करनीका फल अवश्य मिलता है, उसे कोई टाल नहीं सकता, यह नियम है ।। ८५ ।। भावार्थ ....मिथ्यात्वके उदयमें अर्थात् मिथ्यादर्शन ( श्रद्धान ) के कालमें सब उल्टा-उल्टा ही सुझता है अतएव वह जीव खुद अपना ही घात करने लगता है। हितकारी बातोंपर विश्वास नहीं करता और अहितकारी बातोंपर विश्वास करता है उसीके अनुसार चलता है ( वर्ताव करता है । हिंसाको धर्म मानता है, अहिंसाको धर्म नहीं मानता, उससे घृणा करता है उसको बुराइयो बतलाता है। उसके मानने व बरतने बालोंको कायर-डरपोक-अकर्मण्य { आलसी) कहता है, जो सच्चे शरवोरोंका कर्तव्य है एवं सच्चे शरवीर हो जिसका पालन कर सकते हैं। मारनेवालेसे रक्षा करनेवाला बड़ा होता है। जिन विकारी भावों को लौकिक शूरवोर नहीं जीत सकते, उनको एक वीतरागी अहिंसात्रती साधु, बातको बातमें ( क्रीडामात्रमें ) जोत लेता है। मोह, मद, मात्सर्य आदि कषायोंको जीतना सरल नहीं है। उनको अहिंसाधर्मी ही जीत सकता है, उन कामादिकोंको वही चशमें कर सकता जो त्रिलोकविजयी हैं । मोही रागो द्वेषी जीव उनको वशमें नहीं कर सकते, अतएव वे संसार में भटकते रहते हैं। 'शूरवीर वही है, जो कषायोंको निकाल देवे ( भगा देवे, उनकी परवाह न करे ) किन्तु जो कषायोंके चक्कर (वश) में आकर तरह २ के हिंसा आदिक पाप करे, वह शूरवीर नहीं है, अपितु वह कायर है, ऐसा समझना चाहिये । प्रसंगवश विशेष कथन देखो, जब तक सच्ची शूरवीरता । सम्यग्दर्शनपूर्वक निर्भयता । आत्मामें प्रकट नहीं होती अर्थात् चारित्रगुण प्रकट नहीं होता अथवा तीव्र रागका उदय ( अस्तित्व ) रहता है तब तक पर पदार्थोंको हेय मानता हुआ भी उन्हें त्याग नहीं सकता, अतः वह उनके त्यागे बिना शूरवीर नहीं कहला सकता। इसीलिये विषय कषायवाले या पाखण्डी मनुष्य शूरबोर न होने से संसारका या विकारीभावोंका ( पापोंका ) त्याग नहीं कर पाते । फलतः विषय-कषायोंकी प्रबलता होना महान अपराध और बन्धन है ऐसा समझ कर उनके छोड़नेका ही उपदेश दिया गया है। स्व. पं० दौलतरामजीने विनतीमें लिखा है कि-"आतमके अहित विषय-कषाय, इनमें मेरी परिणति न जाय" इत्यादि । एक साथ अनेक कषाएँ तीन मन्द आदि रूपसे उदयमें आती हैं। बुद्धिपूर्वक कमी किसी कषायको दबाया जाता है और किसी ऋषायका पोषण किया जाता है अर्थात् पुष्टि की जाती है। कभी लोभ कषायको पुष्ट करने के लिए क्रोध मान कषायको दबाया जाता है ( एकको दबाना दूसरेको नहीं दबाना खुला या प्रकट रखना)। जैसे दुकानदार पैसे के लोभ ( राग) में ग्राहककी खोटी-खरी बातें भी सुन लेता है ( माम व क्रोधको दवाये रखता है और क्रोधी मानी पुरुष क्रोध व मानको पुष्ट करने के लिये, घर उजाड़ देता है, लोभ नहीं करता इत्यादि । अतएव पाखण्डी
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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