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________________ पुरुषार्थसिद्धयुपाय साधु आदि स्थाति लाभ पूजा आदिके लोभ ( राग ) से स्वर्गसुखके लोभसे घर-द्वार राज्य-संपदा आदिको छोड़ देते हैं, क्रोध व मानको दबा देते हैं। द्रव्यलिंगी साधु, नरकादिके तीव्र भयसे या स्वर्गके लोभसे बाह्यपरिग्रह आदिका स्याग कर देते हैं अर्थात् परिग्रह में लोभ छोड़ देते हैं, इत्यादि दृष्टान्त देखने में प्रत्यक्ष आते हैं। क्या कहा जाय परिणामोंकी गति ( चाल ) बड़ी विचित्र होती है, उसको समझना कठिन है किम्बहुना । हाँ, सम्यग्दर्शन व मिथ्यादर्शन 'श्रद्धाल' पर निर्भर हैज्ञान व चारित्र ( क्रिया ) पर निर्भर नहीं है कारण कि दोनोंके निमित्त { आवरणादि ) जुवे-जुदे हैं ऐसा समझना चाहिए, भ्रम या भूलमें नहीं पड़ जाना चाहिये । अस्तु । नोट---(१) त्याग अर्थात् परवस्तुका छोड़ना, तीव्र कषायमें होता है व भन्द कषायमें भी होता है, वैराग्यमें होता है, कषायके अभावमें होता है इस तरह चार निमित्तकारण माने जाते हैं। इनमें वैराग्यनिमित्तक व कषायके अभावनिमित्तक त्याग, स्थायी व निबन्ध (संबररूप) होता है और सीब कषाय व मन्द कषायनिमित्तक त्याग, अस्थायी व सबन्ध ( आस्रवरूप ) होता है, यह मोटा भेद है। अतएव साधुओं में भी अनेक तरहके साधु (मुनि) होते हैं। द्रव्यलिंगी, भावलिंगी, पाखण्डी, जैनाभास इत्यादि जानना, अस्तु, कारणविपरीतसे फलविपरीत होता है, यह नियम है। कारणविपरीतसे फल अविपरीत कभी नहीं होता ( असम्भव है ) कारणसे असल में उपादानकारण लेना चाहिये, जैसे कि बील! अन्नद हिन्त होगा निमित्तकारण नहीं लेना चाहिये। हाँ, लोकमें जरूर भूमिको अच्छा या बुरा कारण माना जाता है। इसी तरह साधुओंको भी पात्र या कुपात्र या अपात्र कारण माना जाता है, अतः तदनुसार फल व्यवहारमें माना गया है इत्यादि । निश्चयसे बात दूसरी तरकी होती है, किम्बहुना । (२) पर वस्तुका त्याग सम्बग्दष्टिके वैराग्यसे ( भिन्न मानकर स्वतः राग नहीं करता) होता है अर्थात् उससे अरुचि होती है। अतएव मूल रागका स्यागना त्याग है, पश्चात् बाह्य परिग्रह बिना आलम्बन ( राग या चिकनाई ) के स्वयं छूट जायगा, इस तरह ज्ञान वैराग्य सम्यग्दृष्टिके साथ-साथ होता है किन्तु मिथ्याष्टिका त्याग वैराग्यसे नहीं होता, कषाय या भय व लोभसे होता है यह भेद है। द्रव्यलिंगीके स्वरूपविपर्यय और कारणविपर्यय दोनों होते हैं। वह अपने स्वरूप या स्वभावको भी नहीं जानता कि मेरा स्वभाव---ज्ञान-दर्शन है, और रागादि सब विभाव हैं, नैमित्तिक हैं, संयोगज हैं ऐसा भेदरूप सही वह नहीं जानता इत्यादि, वह मूलमें भूला हुआ है। आगे और भी वादीका खण्डन किया जाता है कि सुख प्राप्त करानेको भावनासे भी अन्य प्राणीका घात करना अधर्म है, धर्म नहीं है --- कुच्छेण सुखावाप्तिर्भवन्ति सुखिनो हताः सुखिन एव । इति सर्कभण्डालोग्रः सुखिनो घाताय नादेयः ।।८६।। AmALA wivyunsaharsh...... १. कष्टसे या कठिनतासे । २. तरूपी खड्ग । ३. ग्रहण नहीं करना या ग्रहण करने योग्य या मानने योग्य नहीं है.....अग्राह्य है।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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