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________________ पुरुषार्थसिबधुपाय नाममेद है निश्चय-पवार, जिसे मुख्य उपचार कहा। अर्धभेद नहिं दोनों में कुछ यही अवसंक जीत्र महा 1 || अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ मुख्योपचारबिवरणनिरस्ता सविने मदुर्बोध: J जो सन्त महात्मा, मुख्य उपचारके कथन या विश्लेषण द्वारा दुरन्त या कष्टसाध्य( अनादिकालीन ) शिष्योंके अज्ञान या मिथ्यात्वरूप अन्धकारको मिटा देते हैं अथवा मिटाने में समर्थ होते हैं, ऐसी अपूर्व या . अनुपम योग्यता वाले धक्का था उपदेशक हो [ व्यवहारनिश्चयज्ञाः ] व्यवहार और निश्चयके समीचीन ज्ञाता माने जाते हैं और वे ही महापुरुष | जगति तीर्थं प्रवत्त यन्ते ] संसारमें धर्मतीर्थ (धर्मरथ ) को चला सकते हैं, अर्थात् सच्चे आत्महितकारी रत्नत्रयरूप अहिंसा धर्मका प्रचार कर सकते हैं, अन्य कोई नहीं ।। ४ ।। भावार्थ-शास्त्रों में महात्माओंके अनेक नाम होते हैं, कोई-कोई मुख्य व उपचार ( गौण) के ज्ञाता कहलाते हैं, और कोई कोई व्यवहार निश्चयके ज्ञाता कहलाते हैं, तथा कोई-कोई निमित्त उपादानके ज्ञाता कहलाते हैं, तो कोई-कोई अध्यात्म व आगमके ज्ञाता कहलाते हैं इत्यादि, किन्तु सभी एक जिनशासनके ही ज्ञाता या उपासक हैं-सभीका तत्त्वनिर्णयके विषय में एक मत (सिद्धान्त अविरोष पाया जाता है, लक्ष्य भी सभीका एक ही रहता है कि किसी सरह अज्ञानी जीवोंका अंधकार नष्ट हो और वे ज्ञानी बनें, अर्थात् उनकी मिथ्यादष्टि छुटे और सम्यग्दष्टि हो । फलस्वरूप ये संसारसे पार हो । जीवोंको सबसे बड़ा रोग रागद्वेषमोहका है और उसके छूटे बिना उन्हें सच्चा सुख व शान्ति मिल नहीं सकती। जिसकी चाह रहती है। फलतः उसका ही सच्चा उपाय करना चाहिये। परन्तु उस अपायको बसाने वाले सच्चे ज्ञानी व हितैषी ही हो सकते हैं व होना चाहिये तथा वे कैसे कब हो सकते हैं जब ३ निश्चय और व्यवहारके अच्छे ज्ञाता हों एवं मुख्य और उपचार कथन ( निरूपण) के द्वारा स्याद्वाद या अनेकान्तको स्थापना या पुष्टि करते हुए एकान्ती मिथ्यादृष्टि जीवोंके अनादिकालीन अज्ञान या एकान्तको सरलता पूर्वक आसानी से दूर करनेमें कुशल व समर्थ हो । अर्थात् स्वयं जो नय-प्रमाण-युक्तिका कुशल ज्ञाता हो, स्याद्वादनयका प्रयोग करने में पटु हो, तथा कल्याण कारिणी बुद्धिवाला हो, सम्यादष्टि स्वारका ज्ञाता हो, इत्यादि गुणसम्पन्न होना ही चाहिये तभी वह धर्म प्रवर्तन कर सकता है यही बात आचार्यने इस श्लोकमें प्रदर्शित की है। किम्बहना। सारभूत बात तो यही है। इसके बिना ही इस समय जैनधर्मका प्रचार व प्रसार कम होता जा रहा है। इसको पुष्टि स्थविर आचार्य समन्तभद्र महाराज अपने युक्त्यनुशासनमें करते हुए कालः कलिर्धा कलुषाशयो वा श्रोतुः प्रधनुर्वचनानयो था। स्वच्छासनकाधिपतित्वमी-प्रभुत्वशकरपवादहेतुः ॥१२॥ अर्थ-जिनेन्द्रदेव ! आपके पवित्र सर्वजनीन धर्मका प्रचार कम होने का कारण हमें यह प्रतीत होता है कि एक तो कलिकाल ( खोटा काल ) है, दूसरा लोगोंके विचार (भाव) दुष्ट व खोटे हो गये हैं, तीसरे वक्ता और श्रोताके कथनमें मैत्रा या संधि नहीं बेठती अर्थात् नय
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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