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________________ ; पुरुषार्थसिपा दृष्टि जीव ७ सात सौ या ८ आठ सौ सागर प्रमाण ( उतनी वार) प्रारंभ जैसा क्रम पूरा करले अर्थात् स्थितिबंधासरण पूरे करले सब कहीं एक प्रकृतिबंधासरण होता है अर्थात् एक प्रकृति का बंध होना मिट जाता है अर्थात् बंध नहीं होता । और उक्त क्रम ( चारा या शृंखला ) के अनुसार ही पेश्वर स्थितिबंधासरण करते हुए ३४ चौंतोस प्रकृतिबंधासरण करता है, प्रायोग्यलब्धि कालमें हो ऐसा नियम है । १४ यह प्रायोग्य कब होती है ? 1 जब सयसम्मुख मिध्यादृष्टि परिणाम मध्यम दरजेके होते हैं । अर्थात् जब न तो क्षपक श्रेणी चढ़नेवाले की तरह ऊँने दरजेके विशुद्ध परिणाम हो जिससे नवीन की स्थिति सर्व जघन्य पड़ रही हो तथा पूर्वबद्ध कर्मोकी स्थिति, अनुभाग प्रदेशसत्त्व, भी अति जघन्य (सूक्ष्म) न रह गया हो। इसी तरह तीव्र संक्लेश परिणामवाले संज्ञो पंचेन्द्रिय जीवकी तरह, aata ant उत्कृष्ट स्थिति न पड़ रही हो, और पूर्वबद्ध कर्मोकी स्थिति अनुभाग- प्रदेश उत्कृष्ट नहीं होना चाहिये। ऐसी मध्यम योग्यतावाले परिणामको ही 'प्रायोग्यलब्धि' कहते हैं तभी वह होती है । गाथा नं० ७८ लब्धिसार । यह सब सम्यग्दर्शन प्राप्त होने को सामग्री है | यह वार २ मिल जाती है, परन्तु सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता । क्योंकि विना करrefo ( ५ वीं ) प्राप्त हुए, सम्यग्दर्शन नहीं होता यह नियम है। और करणलब्धिरूप परिणामों के होने पर उसे कोई रोक नहीं सकता : नियमसे वह हो जाता है । तथाहि आगे कहा जाता है भी ( ५ ) करणलब्धिकारणका अर्थ परिणाम हैं। अतः सम्यग्दर्शन प्राप्त होनेके योग्य परिणामोंका प्रकट होना, करणलब्धि कहलाती है । वे परिणाम जब ऊँचे दरजेके विशुद्ध होते हैं, जो अनुपम और अपूर्व हों, जिनका मिलान न पीछेवालोंसे हो न आगेवालोंसे हो अर्थात् पहिले करणaf माँहनेवाले और पीछे करणलब्धि मांडनेवाले सभी सदृश जीवोंसे जब सदृश या विसदृश परिणाम हों तथा सम समग्रवाले अर्थात् साथ २ करणलब्धिवाले जीवोंके परिणाम सदृश या समान हों अथवा उनमें भेद न हो सके, तब सम्यक्त्वके वासक कर्मों ( ७ या ५ प्रकृतियों का उपशम क्षयोपशम या क्षय होता है और सम्यग्दर्शन प्रकट हो जाता है यह नियम है । वे परिणाम तीन तरह होते है ( १ ) अधःकरण ( २ ) अपूर्वकरण ( ३ ) अनिवृत्तिकरण । अधःकरण में नीचे-ऊँचे वालोंके परिणाम समान मिलते हैं । अपूर्वकरणवालोंके परिणाम कभी एकसे नहीं मिलते | अनिवृत्तिकरण वालों के परिणाम समान ( एकसे ) ही होते हैं-भिन्न प्रकार नहीं होते यह तात्पर्य है । यही पांचवीं लब्धि सर्वोत्कृष्ट है जिससे साध्यकी सिद्धि होती है । शेष चार लब्धियाँ अनन्तवार होती व छूट जाती हैं, परन्तु मिथ्यात्व नहीं छूटता इति । fnengष्ट दो तरह के होते है ( १ ) साबि मिथ्यादृष्टि ( २ ) अनादिमिध्यादृष्टि । सादि मिथ्यादृष्टि उनको कहते हैं, जिनको एक बार सम्यग्दर्शन प्राप्त होकर छूट जाय और मिथ्यादर्शन पुनः प्राप्त हो जाय । यदि वह थोड़े ही काल रहे तो उसका बाह्य आवरण नहीं बदलता और यदि afe समय रहे तो बदल जाता है। उसका उत् संसारमें रहनेका कुछ कम अगल
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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