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________________ पुरुषार्थसिलघुपाय २- मध्यम सम्यग्ज्ञानो, जो शब्द अर्थ दोनोंको भलीभांति जानता है वह मध्यम सम्यगज्ञानी है। ३-जनन्यसम्यग्ज्ञानी, जो केवल शब्दोंको ही भलीभांति जानता है, वह जघन्य सम्यग्ज्ञानी है । वह तोता जैसा शब्दशास्त्री होता है, अतः आत्मकल्याण नहीं कर सकता। ये सब व्यवहारनयसे सम्यग्ज्ञानी है। नोट--निश्चय सम्यग्ज्ञानी हो आत्मकल्याण करनेवाले मोक्षमार्गी कहलाते हैं, दूसरे नहीं, यह तात्पर्य है । अस्तु। नयोंमें प्रमाणता सापेक्षतासे आती है पदस्खंडागम पुस्तक १ पेज ८० में लिखा है कि'कुत: नयानां प्रामार्ण्य ? उत्तर- प्रमाणकार्यत्वादुपचारतः । अर्थात् जो कार्य प्रमाण करता है दही कार्य नये भी थोड़े रूपमें करती हैं अतएव गंगाजलकी समान कार्य करनेको अपेक्षासे वे भी प्रमाणिक मानी जाती हैं, परन्तु वे परस्पर सापेक्ष रहती हैं अर्थात् जिसने अंशको वे ग्रहण करती हैं, उतनेको ही उस वस्तुमें नहीं मानती अपितु और का भी अस्तित्व उसमें वे मानसी है जो अज्ञात अंश है। फलतः वे मिथ्या नहीं समझी जाती हैं, यह सारांश है, यदि कहीं के अन्य अज्ञात अंशोंको उस वस्तुमें न मानें तो बराबर मिथ्या हो जायें । उक्तं च निरपेक्षा नया मिथ्या, सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् इति अर्थः-पदार्थके एक २ अंशको जाननेवाला नय, यदि पदार्थमें और अंशोंका सद्भाव ( अस्तित्त्व } न मानकर सिर्फ उत्तना ही अंश माने, तो निः सन्देह वह नय मिथ्या समझा जायगा क्योंकि जब पदार्थ अनेक अंश या धर्मवाला है, तब उसको उतना ही ( एक अंशवाला) मानना सरासर मिथ्यात्व या झूठ है। अलएव पदार्थमें जाने हए अंशोंके सिवाय विना जाने हुए अंशोंका सद्भाव ( सापेक्षता ) मानना अनिवार्य है। तभी वे सब नय अर्थक्रियाकारी या सार्थक होती हैं अर्थात् सम्यक् या प्रामाणिक मानो जाती हैं। इत्यादि समझना चाहिए ॥३६॥ । (३) सम्यकचारित्र अवश्य प्राप्तव्य है। आचार्य आठ अंग सहित सम्यग्ज्ञानका निरूपण करने के पश्चात् अब सम्यक्चारित्रकी आवश्यकता बतलाते हैं जो अनिवार्य है-- विगलितदर्शनमोहैः समंजसज्ञानं विदिततयाथैः । नित्यमपि निःकम्पैः सम्यक्चारित्रमालम्व्यम् ॥३७॥ १. जिनको सम्यग्दर्शन प्राप्त हो चुका है, ऐसे सम्यग्दृष्टि जोव । २. सम्याज्ञानी, जिन्हें सम्यग्ज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण तत्वीका यथार्थ ज्ञान हो चुका हो । ३. निर्भय, दृढ चिन्तवाले मुमुक्षु जीव।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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