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________________ सम्पन्झाम ( ८ ) अनिलवाचार-गुरु या शास्त्र आदिका नाम न छिपाकर खुलासा बताकर अध्ययन करनेको कहते हैं। अस्तु। इसी प्रसंगमें अन्य ग्रंथों में भी खुलासा कथन किया गया है। तथा पं० कविवर यानतराय जीका यह मन्तव्य है कि भाप आप जाने नियत, ग्रन्थ पठन व्यवहार। संशय विभ्रम मोह चिन, आठ अ गुमकार ॥ पूजा. अर्थ :-निश्चयनय (नियत ) से स्वयं ही अपनी आत्माको संशय विपर्यय अनध्यवसाय रहित जानना 'सम्यग्ज्ञान' कहलाता है। इसमें आत्मासे भिन्न पर ( शब्दादिक व इन्द्रियादिक ) की सहायताकी आवश्यकता नहीं रहती। और व्यवहारनयसे शास्त्रोंका सुकाल आदिमें विनयादि सहित पढ़ना सम्याज्ञान कहलाता है ऐसा निर्धार समझना चाहिये । अस्तु।। व्यवहारनपरो या उपचारसे एक २ वस्तुको अपूर्ण रूप जानने वालेको भी पूर्ण ज्ञानी या यथार्थ ज्ञानी कह दिया जाता है, परन्तु वह वास्तविक । निश्चय कपन नहीं है, अपेक्षिक है। । फलस: आत्मज्ञानी ही सम्यग्ज्ञानी कहा जा सकता है और वह एक ही प्रकारका होता है। जैसे कि कोई अकेले द्वादशांग शास्त्रका जानने वाला होकर भी 'श्रुतकेवली' नहीं माना जाता। और जिसको श्रुतज्ञानके द्वारा 'आत्मज्ञान या संवेदन हो जाता है वह 'श्रुतकेवली' कहलाता है। ऐसा श्री कुंदकुंद आचार्य समयसारमें लिखते हैं। महिमा आत्मज्ञान होनेकी है, उसीसे मोक्षकी प्राप्ति होती है, संसारका दुःख छूटता है किम्बहना । भिन्न २ आचार्योने सम्यग्ज्ञानके लक्षण पृथक २ रूपसे बतलाए हैं किन्तु 'आत्मज्ञान को सम्यग्ज्ञान मानने में मतभेद किसी बातका नहीं है, सब एक मत हैं इत्यादि । उपचार या व्यवहारका कथन सर्वथा सत्य नहीं माना सकता। लोकमान्यतासे कथंचित् उसको सत्य माना जाता है। परन्तु निश्चयका कथन कथंचित् विशेषणसे रहित सर्वथा सत्य होता है, यन: उसमें त्रिकालमें अन्यथापना नहीं हो सकता यथावस्थित रहता है। हाँ, यदि उससे भी बढ़कर कोई तत्त्व होता तो अपेक्षा लगाई जा सकती थी किन्तु बेसा कोई है ही नहीं, तब वह अन्तिम निर्णय ( फैसला ) है ऐसा समझना चाहिये । जहाँ पर अपूर्णता हो और उसको पूर्ण कहा आय, वहीं पर उपचारकी प्रवृत्ति या प्रवेश होता है यह नियम है, सर्वत्र यहो निमम गमझना चाहिये। सम्यग्ज्ञानीके ३ भेद ...१-उत्तमसम्परज्ञानी, जो शब्द, अर्थ, उभय इन तीनोंको भलीभांति जानता है वह उत्तमसम्यग्ज्ञानी है। १. काले विणये उवहाणे बहुमाणे तहेव णिण्हवणे । बंजण अस्थ- तदुभये णाणाचारो दु अट्ट विहो ।। ७२ 11 मूलाचार पंचाचार प्रकरण अर्थ----आचारका अर्थ साधारणतः प्रवृत्ति या बाथ होता है। अतएव सम्यग्ज्ञानकी प्राप्तिके लिये (१) शुभकाल (२) विनय (३) उपधान ( ४ ) बहुमान ( ५ ) अनिल्लव (६) व्यंजन ( शुद्धशब्दोच्चारण) (७) अर्थका शान (4) उभयका ज्ञान होना अनिवार्य है ऐसा कहा गया है ।। ७२ ॥
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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